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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
कहीं नहीं जाता; एक ही जगह पर अपने ही जुए में बंधा हुमा कोल्ह के बैल की तरह चक्कर मारता रहता है ।"
यहाँ जैनेन्द्र का तत्त्व दर्शन अभिव्यक्त हुमा है । अपने भीतर दूंद-बूद इकट्ठा हुमा दर्द ही जीवन का सार है, शेष सब छिलके हैं। छिलकों के लिए जीवन का बलिदान नहीं किया जा सकता । छिलकों का मूल्य ही कितना हो सकता है ?
भीतर का दर्द जैनेन्द्र का इष्ट है । धन नहीं, मन चाहिये। क्योंकि, जैनेन्द्र प्रात्मदर्शी हैं, तत्त्वदर्शी हैं, जीवनदर्शी हैं। जैनेन्द्र पूजीवादी लेखक नहीं, जैनेन्द्रकथन है-'धन मैल है ।' दर्द की कृतज्ञतापूर्ण स्वीकृति में से सत्य निकलेगा, प्रकाश अवतरित होगा। अंधकार की खाल प्रोढ़कर हम मानव-संस्कृति की विपरीत दिशा में जा रहे हैं । उस दिशा में समुज्ज्वल पीड़ा की जीवन-सार्थकता नहीं, भ्रम का चक्रव्यूह है।
विधाता से जैनेन्द्र ने मानव-निजता का सम्बन्ध प्राणप्रतिष्ठित किया है। मनुष्य का दुःख विधाता का ही दुःख है । मनुष्य का मूलभूत निजत्व अर्थात् प्राधारनिजत्व विधाता का ही निजत्व है । निजत्व के मार्ग और रूप भिन्न होते हैं, बस । भ्रम जीवन के लिए अनिवार्य नहीं । भ्रम की आवश्यकता जीवन में नहीं पड़नी चाहिए । भ्रम के बिना भी हम जी सकते हैं । सचमुच में, भ्रम के बिना ही हमें जी लेना चाहिए।
___'त्यागपत्र' दर्शन और मनोविज्ञान की सामंजस्य-भूमि है, आलोक-भूमि है । दर्शन और मनोविज्ञान के द्वारा 'त्यागपत्र' की कहानी नियंत्रित है।
'तपोभूमि' में लेखक के स्थान पर जैनेन्द्र कुमार और ऋषभचरण के नाम हैं। स्वयं जैनेन्द्र ने १३-१२-१९६२ ई० के एक पत्र में मुझे लिखा था-"तपोभूमि का लगभग दो तिहाई अंश मेरा है । लिखे पृष्ठ मेरी ओर से रद्द हो चुके थे । ऋषभचरण ने उन रद्दी कागजों को लिया और कहा कि वह खुद कहानी पूरी बना देना चाहता है। मैंने जेल से लिख दिया कि मेरी बला से, जो चाहे करो; मैं उस लिखे को भूल गया हूँ।"
'तपोभूमि' का धरिणी-प्रसंग अंग्रेजी उपन्यासकार फील्डिंग (John Fielding) के उपन्यास 'टोम जोन्स' (Tom Jones) से प्रभावित है। किन्तु 'तपोभूमि' का कितना अंश जैनेन्द्र का है और कितना अंश ऋषभचरण का, यह स्पष्ट नहीं होता।
'सुखदा' में सुखदा की कथा सुखदा स्वयं कहती है । सुखदा की नायिका स्वयं सुखदा है, जैसे 'सुनीता' को नायिका सुनीता और 'कल्याणी' की नायिका स्वयं