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________________ जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २१३ जैनेन्द्र में भारत के गाँव नहीं हैं । जैनेन्द्र के विरुद्ध भारत के गाँव वाले यह शिकायत कर सकते हैं कि जैनेन्द्र ने उनकी अवहेलना की है । ग्रामवादी भारत के प्रेमचन्दत्व के प्रति जैनेन्द्र तटस्थ रहे हैं। जैनेन्द्र के पात्र गाँव के किसान नहीं हैं । मगर जैनेन्द्र बुर्जुश्रावादी लेखक नहीं हैं। जैनेन्द्र ने बुर्जुावाद और पूजीवाद की लक्ष्मी-चालीसा का पारायण नहीं किया। जीवन के प्रति जैनेन्द्र की नारी और स्वयं जैनेन्द्र का दृष्टिकोण स्थूल नहीं है। जीवन को जैनेन्द्र ने स्थूल रूप से ग्रहगा नहीं किया। उपन्यासकार जनेन्द्र जीवन में सीधे नहीं प्रवेश करते, वे दर्शन की राह होकर जीवन में जाते हैं । जीवन-क्षेत्र में जैनेन्द्र चिन्तन के उपकरण लेकर ही जाते हैं । जैनेन्द्र चिन्तक पहले हैं, कथाकार बाद में । प्रेमचंद कथाकार पहले हैं, चिन्तक बाद में । जैनेन्द्र के लिए कथानक साधन है, साध्य नही। उनकी घटनाओं में मनोविश्लेषण. अन्तश्चेतना और दार्शनिक लाक्षणिकता है । जैनेन्द्र एक भाववादी लेखक हैं। उन्होंने जीवन को विशेष रूप से भाव-पक्ष में ग्रहण किया है । पदार्थ को जैनेन्द्र ने तत्त्व में रखकर लिया है, तथ्य में नहीं। जैनेन्द्र मूलतः तत्त्ववादी हैं । घटना-सूत्र उनके तत्त्व मार्ग का पाथेय है। उनकी वस्तु-चेतना अथवा पृथ्वीवाद उनके तत्त्ववाद पर ही आधारित है। जैनेन्द्र के उपन्यास सोचने की प्रक्रिया पर आधारित है। वे अपने पूरे उपन्यास में किसी-न-किसी रूप में सोचते रहते हैं । सोचने की स्थिति जैनेन्द्र की स्थिति है, किन्तु जैनेन्द्र के उपन्यासों में चिन्तन-प्रक्रिया का क्रमिक-विकास नहीं अभिव्यंजित किया गया है, यद्यपि जैनेन्द्र का कथा-तत्त्व चिन्तक जैनेन्द्र का बदी है। 'कल्याणी' में चिन्तन को असम्बद्धता है, नियमितता नहीं। जैनेन्द्र युग-द्रष्टा नहीं, भाव-द्रष्टा हैं। इसीलिये उन्होने जीवन को घटनासंगति में नहीं, भाव-संगति में देखा है। जैनेन्द्र बाह्यार्थवादी नहीं हैं । वे घटना-चित्रों और घटना-चक्रों को भावसंगति और दर्शन-संदर्भ में परिवेशित कर देखते हैं । प्रेमचन्द की सामाजिकता समाज-वास्तव की सामाजिकता है । जैनेन्द्र की सामाजिकता व्यक्ति-बोधात्मक सामाजिकता है, व्यक्ति-सत्य परक जीवन की सामाजिकता है । व्यक्ति-सापेक्ष सामाजिकता को जनेन्द्र ने दर्शनमार्गी निर्देशन दिया है। जैनेन्द्र अनैतिक नहीं, उनका कथाकार अनैतिक नहीं है, किन्तु नीतिमत्ता की रामनामी चादर ओढ़ कर अपने को नैतिकवादी प्रदर्शित करने का प्रयास, नैतिकवादी उपदेश, नीति-प्रवचन आदि देने का प्रयत्न भी उन्होंने नहीं किया । इसलिए भी
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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