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श्री शांतिप्रिय द्विवेदी
जैनेन्द्र जी का साधुवाद
... जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है, जैनेन्द्र जी जैन हैं। उनके नाम और धर्म में एक सांस्कृतिक गरिमा है । एक धार्मिक सम्प्रदाय के अंगीभूत होते हुए भी वे एक प्रबुद्ध कलाकार हैं । साम्प्रदायिक रूढ़ियों में कला का स्फुरण नहीं होता, फिर जैनेन्द्र जी में कलात्मकता कैसे आ गई ? वस्तुतः वे किसी सम्प्रदाय में सीमित नहीं हैं। उनकी चेतना जीवन्त है । जिस धर्म में प्राणिमात्र के लिए अहिंसा और प्रेम है, वह तो विश्व धर्म है, वही अपनी व्यापकता में साम्प्रदायिकता से मुक्त होकर असीम सृष्टि और असीम युग में सर्वात्म हो जाता है । जैनेन्द्र जी शरीर की तरह एक सम्प्रदाय में
आकर भी प्रात्मा की तरह देहातीत अथवा सम्प्रदाय-मुक्त हैं । उनके धर्म और कला में कोई विरोधाभास नहीं है । धर्म में जो उदारता है, वही तो कला में विश्ववेदना और संवेदना बन गई है।
धर्मात्मा होते हुए भी जैनेन्द्र जी नैतिक शास्ता अथवा ज्ञानोपदेशक नहीं हैं। उनकी संवेदना में प्राणियों की प्राकृतिक दुर्बलताओं के लिए सहानुभूति और आत्मीयता है। वे अपनी ही तरह सबके प्रति ईमानदार हैं । एषणाओं और दुर्बलताओं से परिचित होते हुए भी उनमें निर्लोभ और त्याग है । एक शब्द में वे उत्सर्गशील मनुष्य हैं। अभाव-ग्रस्त के लिए वे नि:स्व और दिगम्बर हो सकते हैं । मैं नहीं जानता कि साहित्यकारों में जैनेन्द्र जी जैसे आत्मत्यागी कितने लोग हैं।
जैनेन्द्र जी के सान्निध्य में वही आश्वस्ति मिलती है जो परमात्मा के सायुज्य में मिलती है । मैं उनकी दीर्घायु की कामना करता हूँ और यही सदिच्छा करता हूँ कि पृथ्वी उनके जैसे सहृदयों का विश्व कुटुम्ब बन जाय ।"
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