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श्री रामनिरंजन 'परिमलेन्दु' जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण
जैनेन्द्र एक व्यक्तिबोधी कथाकार हैं । उनमें व्यक्तिवाद नहीं, अन्तर्व्यक्तिमुखता है, व्यक्तिबोधात्मकता है । उन्हें हिन्दी कथा-साहित्य में व्यक्तिबोधवाद का प्रवर्तक स्वीकार किया जा सकता है। प्रेमचन्द ने व्यक्तिबोधवाद से पृथकत्व स्थापित किया । प्रेमचन्द का समाज-सापेक्षवाद व्यक्ति-वास्तव और व्यक्ति-सत्यों को समाज-वास्तव का निरीह बंदी बना देता है। उनका सामाजिक वर्गवाद प्रबुद्ध व्यक्तिबोध की अवहेलना करता है। जैनेन्द्र ने व्यक्तिबोधात्मक सामाजिकता को प्रश्रय दिया है, समाजवास्तव की सामाजिकता को नहीं । गोदानवाद जैनेन्द्र का विषय नहीं रहा । गोदान का वातावरण और गोदान की चारित्रिकता से जैनेन्द्रवाद परिचित नहीं है । जैनेन्द्र में गोदानवाद की पीड़ा नहीं, गोदान के भारत की मार्मिकता नहीं; गोदान की करुणा नहीं, उनमें होरी-वास्तव नहीं है।
जैनेन्द्र की सामाजिकता व्यक्ति-सत्यों की सामाजिकता है, प्रेमचन्द की सामाजिकता नहीं । जैनेन्द्र व्यक्ति-सत्यों के सापेक्षवादी मनोविश्लेषण में अपने उपन्यासों को रखने के आदी हैं । जैनेन्द्र व्यक्तिसापेक्ष जीवन और व्यक्ति-सापेक्ष सत्यों को अभिव्यंजना-गौरव प्रदान करने में कुशल हैं । जैनेन्द्र का व्यक्ति-सापेक्षवाद मूलतः अन्तरचेतनावाद, मनोविश्लेषणवाद अथवा प्रभाववाद नहीं; वह जैनेन्द्रवाद है, व्यक्ति का जैनेन्द्र-सापेक्ष सत्य ! जैनेन्द्र का व्यक्ति सापेक्ष तत्त्वों में जैनेन्द्र का चिन्तन अभिव्यक्त है, वहां जैनेन्द्र का जागरूक निजत्व बोलता है। जैनेन्द्र व्यक्तिपरक सीमावादी से अधिक व्यक्ति-सापेक्ष हैं, व्यक्ति-सापेक्ष जीवन के चिन्तनपरक कथाकार । जैनेन्द्र के उपन्यासों की अन्तर्मुखता में व्यक्ति की अन्तर्मुखता व्यक्तिवादी अन्तर्मुखता, व्यक्तिसापेक्ष अन्तर्मुखता से ज्यादा अधिक जीवन की अन्तर्मुखता है ।
जैनेन्द्र और जैनेन्द्रबोध का व्यक्तिसापेक्षवाद नारी संश्लिष्टता का मानसरोवर है । व्यक्ति-सापेक्षात्मक नारी-अन्विति को प्रभावकारी, संकेतात्मक आवेष्टन प्रदान कर जैनेन्द्र ने जीवन, मृष्टि और देश की विभिन्न समस्यायों को आन्दोलित करने का सुप्रयास किया है । व्यक्तिबोधात्मक नारी-संश्लिष्टता को जैनेन्द्र ने समष्टि बोधी उप
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