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प्रश्नान्त, सुखान्त, दुखान्त से निर्वेद : जैनेन्द्र चाहिये । वह जयवर्द्धन के प्रति अाकर्षित है; और संघर्ष का एक त्रिकोण उठ खड़ा होता है । इन्द्रमोहन का चित्रण रहस्यमय चित्रित हुआ है। पात्रो की परिधि मनोविश्लेषण-शास्त्र की नवीन स्वीकारोक्तियों को सशं करती है, रस-भाव बहुत कुछ तिरोहित हुपा है (निबन्ध प्राकार अत्यधिक उभार पर है) । प्रशंसनीय है, जैनेन्द्र का 'युटोपिया'; अर्थात् लेखक पर वैचारिकपन का भूत हावी हो गया है, कथाकार जैनेन्द्र को जिसने दबोच-सा लिया है ।
__जयवर्द्धन में सूक्ष्म विचारक वर्तमान के मूलभूत प्रश्नों की गहराई में पैठता दृष्टिगोचर होता है । अल्प मनोरंजक 'जयवर्द्धन' नितान्त शुष्क (और तरल भी) नहीं है; अपितु उसमें प्रस्तुत है विचार और चिन्तन (दृष्टिकोण) की पर्याप्त सामग्री, कि भविष्य में लोकतन्त्री राजव्यवस्था क्या असफल सिद्ध न होगी (?), राज्य विकेन्द्रित तथा लोकधर्मी बनकर बिखर न जायेगा (?)
'त्याग-पत्र' का प्रमुख पात्र उपन्यास के अन्त में अपना 'त्याग-पत्र' पेश करता है । जयवर्द्धन में राष्ट्रीय राजनीति की भूमि पर अनेक वादों किंवा स्वार्थों (दलों) के मध्य जयवर्द्धन की स्थिति उलझती है, और अंत में राज का त्याग (दूसरे शब्दों में पलायन) उसके लिए सम्भवतः कर्तव्य बन जाता है-इस प्रकार वह अहिंसा के (देन्य विमुख) मार्ग को स्वीकार कर 'श्रान्त' स्थिति का अनुभव करता है। • व्यक्ति के प्रति झुकाव होने के कारण जैनेन्द्र समकालीन राष्ट्रीय, जातीय या जन-सम्मत अान्दोलन के अच्छे-बुरे प्रभाव पर टीका-टिप्पणी करने से विमुख हैं। हां, वह प्राणी के हृदय में, सजीव धड़कता हुअा जो 'चिन्मय सत्य' है, उसकी संधानवत्ति को साहित्यकार का कर्तव्य मानते हैं ।
बाह्य दृष्टि से अप्रभावशाली व्यक्तित्व के महान् विचारक (दार्शनिक) जैनेन्द्र की मेरी दृष्टि में सबसे बड़ी खूबी है—प्रश्नान्त, सुखान्त, दुखान्त से विमुक्त उनकी कला-कृतियाँ-जिनके अन्त में एक विराट प्रश्न मस्तिष्क में स्फुटित होता है । किंकर्तव्य, चकित, मतिभ्रम वा 'इति' पर हम क्या आवाक नहीं हैं ? पुनश्च
उपसंहार-आधुनिक भारतीय (हिन्दी) गल्प-कादम्बरी के प्रख्यात प्रतिनिधि शिल्पी श्रद्धेय श्री जैनेन्द्र की सूक्ष्म-कला को नापा नहीं जा सकता, पहिचाना नहीं जा सकता, प्रतीत किया जा सकता है, जाना जा सकता है और केवल प्रांका जा सकता है।