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________________ प्रश्नान्त, सुखान्त, दुखान्त से निर्वेद : जैनेन्द्र २०७ आलोचक 'जयवर्द्धन' को उपन्यास कोटि (श्रेणी) में मानें-न-मानें, इससे कृति के मूल में कोई अन्तर नहीं पाता । 'त्याग-पत्र' की तरह 'जयवर्द्धन' भी अमरीकी पत्रकार हूस्टन (विलबर शेल्डन हूस्टन) की निजी स्मृति-संचिका (वैनन्दिनी)। (२१ फरवरी से १० अप्रैल तक) के पृष्ठों का विस्तार ही उपन्यास के रूप में परिकल्पित है। आलेख तथ्यगत हैं, और कथित सत्य को उभारने के लिये यत्र-तत्र कल्पना का प्राश्रय मुक्त रूप से उपन्यासकार ने ग्रहण किया है । दैनन्दिनी का आलेख पुष्ट है और औपन्यासिक रस-अपरिपक्व-सा है । कथा की सरसता और कला की रंगीनी से मुक्त है । कृति विवरणात्मक है, वह भी अन्तरंगी, यानी मन का-जो लेखक के दार्शनिक-पन की ओर संकेत करती है । पात्र असंवेदनीय से हैं । इन्द्रजाली वैचारिकता चिन्तनीय है । हूस्टन पत्रकार के साथ दार्शनिक भी हैं, साथ ही भारत के आदर्शों के प्रति जिसका दृष्टिकोण कुछ सहानुभूतिमय है। दैनन्दिनी शिल्प के माध्यम से इस्टन (तत्वचिन्तक जैनेन्द्र) इतनी ही बात हमें बता सके हैं, जितनी भारत के बारे में राजनीतिक बातें वह जान पाए वा पाठक को कला के माध्यम से बताना चाहते हैं । हूस्टन की दृष्टि पैनी है, तर्कमय है--- पर कल्पना से एकदम वह विमुक्त भी नहीं है । 'जयवर्द्धन' भारतीय लोकतंत्र के अधिपति हैं । व्यक्तित्व असाधारण है। सत्ता और वैभव के बीच रहते हुए मानों उसके स्पर्श से अछते हैं । अपने स्थान पर हैं तो कर्त्तव्य-भावना से और अन्तःकरण की पुकार का ही उनके निकट सबसे अधिक महत्त्व है । ऐसा कहाँ लोक में प्रचलित है कि सत्ता पर जो पासीन है-उसका विरोध न हो। जयवर्द्धन का भी उग्र विरोध होता है, किन्तु विरोध के प्रति वह अत्यधिक सहिष्णु हैं। विरोध को विवेक से जीतने का प्रयास करते हैं । लोकतंत्र में सत्ता उस दल के हाथ में रहती है, जिसका बहुमत होता है, किन्तु जयवर्द्धन दलगत संघर्ष को समाप्त करने की सोचते हैं, ताकि आपस में टकराने वाली शक्तियाँ भी टकराना छोड़कर समाज के निर्माण और विकास में सहायक बनें । उनका व्यक्तित्व दलों के सहयोग में बाधक होता दिखाई देता है, तो वह अपने को राज्य-सत्ता से अलग करने के लिए प्रस्तुत कर लेते है । वह अनुभव करते हैं कि उनका स्थान राज्य के केन्द्र में नहीं, बल्कि उसके बाहर है। "ग्रादर्श समाज वह होगा, जिसमें राज्यसत्ता का सम्पूर्ण लोप हो जायेगा।" इस अादर्श की प्राप्ति के लिये जयवर्द्धन निश्चय करते हैं कि उन्हें सत्ता से हटकर प्रयत्न करना होगा। जयवर्द्धन किसी दल से प्राबद्ध न होने के कारण, हर वादी के लिए संकट का केन्द्र बन गया । उसके विरोध में पक्ष-विपक्ष स्थापित हो गये । राजनीति के
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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