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प्रश्नान्त, सुखान्त, दुखान्त से निर्वेद : जैनेन्द्र
२०५ पर चाय पी गई । लगा, इस सादगी भरी चाय में जैनेन्द्र का प्यार भरा महान् स्नेह छिपा है । उस छोटी-सी घरेलू दावत में कितना मज़ा आया - कभी कह न पाऊँगा । उस दिन बातचीत कुछ निजी विषयों पर चल पड़ी । पत्र - पारिश्रमिक पर बात ठहरी और जैनेन्द्र का साहित्यकार एकाधिपति मनचले पत्र स्वामियों के प्रति सुर्ख हो उठा । चेहरे पर तमक की झलक उभरी और उनका मन कहीं दूर चला गया । जैनेन्द्रजी क्या हैं ( ? ) यह प्रश्न हिन्दी के समीक्षको ने अनेक बार उठाया, पर समाधान सदा अधूरा ही रहा । ठीक भी है, वे सिद्धहस्त - विवेकमय विचारकचिन्तक हैं, अनन्त का विचार कभी दर्शन की सीमा में बंध कर सिद्धान्त नहीं बन सकता । उनकी विचारधारा असीम है, संभवतः इसीलिये उनके अन्तः बोध को पकड़ना संभव है और आत्मलाभ का साधन मात्र होने के कारण वहाँ ग्राह्य-अग्राह्य कुछ वर्जित नहीं है । " घटना घटना होती है । अपने आप में न वह अश्लील होती है, न शिष्ट । हमारा उस घटना के साथ क्या नाता है, उसके प्रति क्या वृत्ति हैअश्लीलता इस पर निर्भर है ।" जैनेन्द्र : " साहित्य और नीति
उनकी दृष्टि में सुख और तृप्ति कोई साहित्य का ध्येय नहीं है ।
जैनेन्द्र को आलोचकों ने जितना दुरूह बताया (किंवा बना दिया) है, क्या वे सचमुच ऐसे ही हैं ? मेरी समझ से वे एकदम अनावृत हैं । उन्होंने अपने विषय में जितना कुछ कहा है, लिखा है- संभवत: साहित्य समालोचकों ने उस पर उतना 'सीरियस' कभी न सोचा है, न समझा है; और न लिखा है ।
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जैनेन्द्र को समझने के लिये उनकी वार्तानों, प्रश्नोत्तरों, निबन्धों और कतिपय रेखाचित्रों का अध्ययन अनिवार्य है; और इसी संदर्भ में 'साहित्य का श्रेय और प्रेय' विचारोत्तेजक कृति है । स्वकथन है :
कला की सार्थकता यही है कि वह बंधनों से उत्तीर्ण करने वाली हो, स्वय निरंकुश हो, अपने ऊपर बंधन लेकर नहीं चले ।
जैनेन्द्र : 'साहित्य और कला' स्वनामधन्य एक आलोचक वर्ग का दृष्टिकोण है,
जैनेन्द्र की दृष्टि अध्यात्म श्रौर मनोविज्ञान की दो विरोधी श्रौर भिन्न स्तरों की मान्यताओं के संगम में गहरे पैठ गई ( वा श्रोझल हो गई ) है !
यह कथन भी हृष्टव्य है :
"अाज की सदी के कलाकार को अन्ततः दार्शनिक होना ही पड़ेगा ।' जॉज बर्नार्ड शॉ जैनेन्द्र दर्शन के प्रति आस्थावान हैं । इसका यह अर्थ नहीं है कि वह कला