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बालमुकुन्द मिश्र
प्रश्नान्त, सुखान्त, दुखान्त से निर्वेद : जैनेन्द्र
सर्वश्री रामनरेश त्रिपाठी और सुदर्शन की रोचक कृतियाँ बचपन से साहित्य की ओर मुझे आकर्षित करती रहीं । माध्यमिक शिक्षा के समय, प्रेमचन्द जी के साथ उनके अनेक पारिवारिक लेखक सदस्यों के साथ जैनेन्द्र कुमार से परिचित हुग्रा । जैनेन्द्र का नाम (१९३६-३७) सबसे पहले 'हंस' पत्रिका में पढ़ा, तब वे सम्पादक
साहित्यकारों के सम्पर्क में (१६४२. ४७) आने पर पता चला कि वह दिल्ली में रहते हैं । प्रो० नगेन्द्र द्वारा प्रायोजित दरियागंज की एक गोप्टी में उनके दर्शन किये । व्यक्तित्व से अधिक, कहीं तेजी के साथ उनकी वागी ने मन पर प्रभाव डाला-जो आज तक स्थिर है।
एक दिन प्रानन्द-लेन (दरियागंज) में राह पर जैनेन्द्र जी को देखा, नमस्कार की । वह रुक गये । बहुत धीरे और प्यार से बोले । ऐसा लगा जैसे मुझे खूब जानते हों, मैं भी कोई साहित्यकार हूँ; पर यह तो उनकी सहज वृत्ति, महानता, बड़प्पन था।
जैनेन्द्र जी की संस्था 'पूर्वोदय प्रकाशन' में आयोजित 'शनिवार-समाज' की अनेक गोष्ठियों में उनको समीप से देखने का मौका मिला । प्रायः विवाद के पश्चात् जैनेन्द्र के सन्तुलित व्यक्त विचार हर वार हृदय को स्पर्श करते रहे।
१६५७ में जैनेन्द्र के घर पर जाने का मौका मिला । कुछ अजीब-सी प्रतीतियां मन में उभरीं । इकहरा-मझला कद, तन पर बनियान और जांघिया --- इतनी सादगी और महान् जैनेन्द्र ! ऐसा निवास स्थान (! ) छोटा-सा कमरा, जिसके आधे हिस्से में अँधेरा, जहाँ कुछ सादी-सी कुर्सियां । दीवार के पाले में विख्यात विदेशी लेखकों की कृतियाँ । एक कोने में लिपटी हुई चटाई, एक छोटी-सी नंगी टेबल । उसी
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