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जिनेन्द्र जी के साहित्य-सिद्धान्त
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निष्कर्ष -
जैनेन्द्र जी के साहित्य - सिद्धान्तों का निरूपण करने के अनन्तर यह स्थिर करना भी आवश्यक है कि उनकी साहित्य-दृष्टि व्यवहारिक दृष्टि से कितनी उपयोगी है ? इस दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि जनेन्द्र जी ने जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, वे मात्र सिद्धान्त कथन तक ही सीमित न होकर उनके अनुभूत हैं । अपनी रचनाओं में उन्होंने इनका सर्वत्र पालन किया है । आलोचना की अपेक्षा प्राय: कहानी - उपन्यासों अथवा अन्य प्रकार के वैचारिक निबन्धों तक ही सीमित रहने के कारण यद्यपि जैनेन्द्र जी ने विभिन्न साहित्य - सिद्धान्तों की विस्तृत और गहन विवेचना नहीं की है, तथापि उनके द्वारा सूत्र रूप में प्रस्तुत किये गए विचार भी अपने आप में पूर्ण व्यवस्थित हैं । उनमें भ्रान्ति अथवा प्रविवेक के लिए स्थान नहीं है । यहाँ इस बात का संकेत करना अनावश्यक न होगा कि जैनेन्द्र जी ने रचना के बाह्य स्वरूप की दृष्टि से मूल्यांकन करने वाले प्राचीन मानदण्डों का विरोध किया है । निम्नलिखित पंक्तियों में उन्होंने इसी श्रावश्यकता पर बल देते हुए सामयिक आलोचकों से इसकी प्रत्याशा करते हुए लिखा है – “अब हमारे आलोचना के मानों को गहरे जाने की ज़रूरत है । शरीर की नाप-जोख हो, लेकिन उसी हद तक जहाँ तक वह प्रात्मतत्व तक पहुँचने में सहायक हो । वह ग्रालोचना, जो शरीर का व्यवच्छेद करती और उसी में गुण-दोष, सुन्दरता असुन्दरता, सफलता-असफलता का निर्णय देखती है, सच्ची नहीं है । पांडित्यपूर्ण तो वह हो सकती है, जीवन-संवर्द्धक वह नहीं हो सकती ।""
इन पंक्तियों में जैनेन्द्र जी ने ग्राज के कलावादी आलोचक को स्पष्ट चुनौती दी है । और यह ठीक भी है। साहित्य और कुछ होने की अपेक्षा सबसे पहले हृदय
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की वस्तु हैं । कला अथवा नीति की दृष्टि से उसका मूल्यांकन व्यर्थ है । जिस रचना साहित्यकार के मन का जितना स्वच्छ प्रतिविम्ब है, वह उतनी ही सशक्त है । श्रतः आज इस बात की नितान्त आवश्यकता है कि हम आलोचना के नपे-तुले मानदण्डों में परिवर्तन करके हृदय के मूल संवेदनों की दृष्टि से उसका उचित मूल्यांकन करें ।
१. 'समीक्षा समन्वयशील हो' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० १३८)