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________________ १०२ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व पूर्णाधिकार नहीं है-यह अनुभूति लेखक के लिए बहुत उपयोगी है। यह अनुभूति होने पर भापा की बहार दिखाने का प्रलोभन उस पर सवार न होगा और वह विनम्र ही रहेगा।" (६) साहित्य और कलात्मकता--- ___ किसी भी साहित्यिक कृति के मूल्यांकन के लिए हमें दो बातों का ध्यान रखना पड़ता है--भाव पक्ष एवं कला पक्ष । भाव-पक्ष का सम्बन्ध साहित्य की आत्मा से है और कला पक्ष उसका शरीर है । इन दोनों में भाव पक्ष का महत्त्व निश्चय ही अधिक है । यदि हमारे पास सशक्त भाव हैं, तो हम कलात्मक परिसज्जा के अभाव में भी उनकी प्रभावकारी अभिव्यक्ति कर सकेंगे। इसके विपरीत यदि हमारे भाव ही नहीं होंगे तो हम मात्र कला के बल पर प्रमाता को अधिक देर तक आकृष्ट नहीं कर पाएँगे । इसी कारण जैनेन्द्र जी भी भावाभिव्यक्ति में कला की प्रमुखता (टेकनीक) को कोई स्थान नहीं देते । उनके अनुसार- 'शरीर-शास्त्र-विद् हुए बिना भी जैसे प्रेम के बल से माता-पिता बन कर शिशु-सृष्टि की जा सकती है, वैसे ही बिना 'टेकनीक' की मदद के साहित्य सिरजा जा सकता है ।"२ यही नहीं, उन्होंने 'टेकनीक' को 'अपने अन्दर का दिवाला' मानते हुए यहाँ तक कह दिया है कि 'साहित्यशास्त्र को बिना जाने भी साहित्यिक बना जा सकता है । और शायद अच्छा साहित्यिक भी हुआ जा सकता है। इसमें साहित्य-शास्त्र की अवज्ञा नहीं है, साहित्य के तत्त्व की प्रतिष्ठा ही है ।४ प्रस्तुत प्रसंग में यह ज्ञातव्य है कि भावों के प्राबल्य की स्थिति में अभिव्यक्ति की कलात्मकता स्वयं आ जाती है । कला कोई प्रारोपित वस्तु न होकर सत्साहित्य का प्राकृत गुण है । प्रतिभा एवं व्युत्पत्ति के कारण साहित्यकार को भाषा, छन्द अादि पर ऐसा अधिकार हो जाता है कि वह भावों के अनुकूल इनका अनायास संयोजन करता चला जाता है। उसके साहित्य में इन दोनों का पार्थक्य नहीं रहता । वहाँ कला भावों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए ही पाती है। ऐसा साहित्य ही चिरस्थायी कहलाता है-'शरीर और आत्मा की एकता, जिसमें जितनी सिद्ध हुई है वह उतना चिरजीवी साहित्य है, यानी जिसमें यदि शरीर है तो मात्र आत्मा को धारण करने के लिए है।"५ १. 'लेखक की कठिनाइयो' शीर्षक लेख (माहित्य का श्रेय और प्रय, पृ० २६५) २. 'स्थायी और उच्च-साहित्य शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ३३५) ३. साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ३५६ ४. 'साहित्य की सचाई' शीर्षक लेख, (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ७६) ५. 'स्था पी और उच्च साहित्य' शीर्षक लेख (साहित्य का अंग और प्रेय, पृ० :३६)
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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