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जैनेन्द्र जी के साहित्य-सिद्धान्त फिर सबको ऐसे प्रस्तुत कर दिया है कि जिज्ञासा खुले और सहानुभूति फैले ।'' ।
जैनेन्द्र जी साहित्यकार को मताग्रह से दूर रहने का उपदेश देते हैं । इस संबंध में उनका मत है कि, "साहित्य-रचना में.मताग्रह को स्थान न होगा । प्राग्रह जितना है, या जितना तीत्र है, रचना उतनी निकृष्ट है । एक मत के अाग्रह में दूसरे मत का अनादर समाया है । यह एक विकृत वृत्ति है और असांस्कृतिक है, फलतः साहित्य से विपरीत है ।"२ वस्तुतः यह ठीक भी है । किसी मत-विशेष की ओर प्राग्रह होने के कारण साहित्य स्रष्टा अपने भावों का स्वतन्त्र प्रतिपादन करने में असमर्थ रहता है । यहां यह ज्ञातव्य है कि सामाजिक प्राणी होने के कारण लेखक विभिन्न मतों से पूर्णतः अप्रभावित तो नहीं रह सकता, पर जैनेन्द्र जी का अभिप्राय यही है कि इन मतों के प्रभाव से अधिक से अधिक जितना बचा जा सके, उतना ही श्रेयस्कर है । मताग्रह से प्रेरित होकर हम जो भी लिखेगे, वह हमारी अपनी वस्तु न होगी । वह हमारे मन का सच्चा प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ होगी; जबकि साहित्य और कुछ न होकर कृतिकार के मन का प्रतिबिम्ब मात्र है---“साहित्य साहित्यिक की आत्मा को व्यक्त करता है । साहित्य और साहित्यिक इन दोनों में वैसा पार्थक्य नहीं है, जैसा कि हलवाई और मिठाई में होता है । रचनाकार और रचना-कृति में ऐक्य का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिये आप यह निरपवाद मान लीजिए कि अच्छे साहित्य का कर्ता अच्छा ही होता है । साहित्य कृतिकार के मन का प्रतिबिम्ब है।''3 अतः लेखक को यही चाहिये कि वह अावश्यक मतों की ओर झुकने के स्थान पर अपने मन की निश्छल अभिव्यक्ति करने का ही प्रयास करे- "समूचे जीवन को निश्छल भाव से अपनाने और प्राकलन करने की तैयारी जिन शब्दों में नहीं है, उनमें साहित्य के रथ को अटकाने से काम नहीं चलेगा।"
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैनेन्द्र जी की भांति कविवर दिनकर ने भी साहित्यकार की ईमानदारी पर इतना ही बल दिया है । कवि के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए उनके द्वारा व्यक्त किया गया यह मत जैनेन्द्र के ही अनुरूप है-'कवि के लिए जो प्रथम और अन्तिम बन्धन हो सकता है, वह केवल इतना ही है कि कवि अपने आपके प्रति पूर्ण रूप से ईमानदार रहे ।'५
१. 'मैं और मेरी कला' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रय, पृष्ठ ३२७) २. 'मा। क्या : संघर्ष कि समन्वय ?' शीर्षक लेख (माहित्य का श्रेय और प्रेय,
पृष्ठ १३४) ३. साहित्य का श्रेय और प्रेय (जैनेन्द्र), पृष्ट ३४७-३८ । ४. 'समालोचन के मान बदलें' शीर्षक लेग्य (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ १४) ५. मिट्टी की ओर (दिनकर), पृ० १३२ ।