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________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व (४) साहित्य में श्रादर्श और यथार्थ साहित्यकार अपनी रचना में जीवन के जिस स्वरूप को ग्रहण करता है, उ का एक प्राधार तो उसकी कल्पना में रहता है और दूसरा जगत् की यथार्थ भूमि में । वास्तविक जीवन को अपने मनोवांछित स्तर तक लाने के प्रयास में उसे कल्पना का आश्रय लेना पड़ता है। जीवन 'जैसा है' और 'जैसा होना चाहिये' इन्हें हम क्रमशः यथार्थ और आदर्श कहते हैं । साहित्य में इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती । वस्तुतः इन दोनों में विरोध न होकर आन्तरिक सामंजस्य है । आदर्शवाद की प्रेरणा का आधार यथार्थ ही है । यदि उसमें जीवन की वास्तविकता का अंश न होगा तो हम ऐसे प्रादर्श को प्राप्त करने के लिए व्याकुल ही क्यों होंगे ? अतः कल्पना का रंग चढ़ाये बिना जीवन का यथातथ्य चित्रण यथार्थवाद है और कल्पना के स्पर्श से उसका साफ़-सुथरा स्वरूप है प्रादर्शवाद ।। जैनेन्द्र जी ने साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद के प्रतिपादन पर अनेक लेखों में विचार किया है। यथार्थ वर्णन यद्यपि जीवन की घृणा, कुत्सा और न्यूनताओं को उभारने का प्रयास करता है, किन्तु हमारे पालोचक विचारक का स्पष्ट मत है कि केवल इसी कारण साहित्यकार यथार्थ से मुंह नहीं मोड़ सकता । उनके अनुसार, 'आज का मनुष्य सुन्दर से अधिक बीभत्स के निकट है, इसलिए साहित्य को भी अधिकार नहीं कि वह सुन्दर के निकट जाय । उसे बीभत्स को उतनी ही पूरी तरह स्थान देना होगा, जितना कि उसने वर्तमान जीवन में ले रखा है । जिसको देखकर ग्लानि होती है, जुगुप्सा अाती है। उस सबमे भी बचना नहीं होगा। साथ ही यथार्थ की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते भी हुए जैनेन्द्र जी आदर्शवाद का विरोध नहीं करते । “जो साधारणतया अाँखों से नहीं दीखता, नहीं दीग्व सकता, साहित्य की पहुँच कल्पना द्वारा वहां भी हो जाती है ।"२ इन शब्दों में उन्होने इसी तथ्य की स्वीकार किया है। इन्हीं विचारों को उन्होंने अपने एक अन्य लेख में इस प्रकार व्यक्त किया है...... "साहित्य ज्यों का त्यों बाजारी दुनियां के प्रतिबिम्ब को अंकित करने के लिये नहीं है । इस दृष्टि से साहित्य विशिष्टतर है, यह विशिष्टता उसकी मर्यादा भी है । साहित्य के नायक और पात्र दुनिया के आदमी की तुलना नहीं कर सकते ।"3 अादर्शवादी विचारधारा की स्वीकृति के सम्बन्ध में उनकी ये पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं-"आदर्श की प्रेरणा को कोई रोमांटिक कहे तो मुझे आपत्ति नहीं । .... 'जो एकदम वास्तविकता में लिप्त है. फिर चाहे वह कितना १. प्रतिनिधित्व या उन्नयन (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ५७-५८) २. 'दूध या शराब' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ७०) ३. 'आलोवक के प्रति', शीर्षक लेख, (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० १०६)
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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