________________
१६६
जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व होती है, बल्कि इसलिए बड़ा है कि वह मनुष्य को उन्नत और विशाल बनाता है ।''
इस प्रकार स्पष्ट है कि जैनेन्द्र जी के मत में साहित्य का मूल लक्ष्य मानव की वृत्तियों का उनयन करना है । वे साहित्य में कलात्मकता की महत्ता स्वीकार करने के स्थान पर ऐसे भावों का संयोजक प्रावश्यक मानते हैं, जिनसे इस लक्ष्य की सिद्धि हो सके । उन्हें साहित्य के इस शुभ उद्देश्य में पूरी आस्था भी है......"भाषा चाहे जैसी हो, भावना और शैली चाहे जैसी हो, व्याकरण का परिष्कार भी न हो, किन्तु वह जीवन की, हृदय की, चीज़ ज़रूर हो । वह हमारी कमजोरियों की दीवार में झरोखे पैदा कर दे जिसमें शुद्ध हवा आने-जाने लग जाय । बीमार के लिए स्वच्छ हवा कैसे हानिकारक है ? मनुष्य-मनुष्य के बीच में जो दीवारें खड़ी कर दी गई हैं, साहित्य उनमें खिड़कियाँ खोल देगा।" (३) साहित्य और ईमानदारी
साहित्य-सृजन के समय जैनेन्द्र जी ने ईमानदारी की रक्षा को भी आवश्यक बताया है । ईमानदारी का अभिप्राय है अनुभूति की अमिश्रित अभिव्यक्ति । अर्थात् हम अपने भावों को सहज रूप में अभिव्यक्त कर दें; भावों के स्पष्टीकरण के लिये कल्पना का प्राश्रय तो लें, पर उसी में डुब न जायं; कला के प्रसाधन में ही न लगे रहें । यदि हम ऐसा करेंगे तो पाठक मूल भाव को ग्रहण करने के स्थान पर बाह्यसौंदर्य तक ही सीमित रह जायेगा। इसी कारण जिस रचना में केवल भाषा, छन्द अादि के कलात्मक सौन्दर्य पर ही ध्यान दिया गया हो, उसे जैनेन्द्र जी साहित्य की कोटि में नहीं मानते-"नहीं, सब साहित्य नहीं है। -- वह (मनुष्य) धीमे-धीमे भाषा का महत्त्व भूलने लगा। जो प्रात्म-दान का साधन था, वह अात्म-वंचना का वाहन बना । व्यक्ति उसमें भावना से अधिक अपना अहंकार गुजारने लगा । जहाँ यह है, वहाँ भाषा का व्यभिचार है । वैसा लिखना केवल लिखना है । वह साहित्य नहीं है।
केवल सैद्धांतिक रूप में नहीं, वरन व्यावहारिक रूप में भी जैनेन्द्र जी ने इस प्रादर्श को स्वीकार किया है । अपने रचनात्मक साहित्य की इसी विशेषता की ओर इंगित करते हुए उन्होंने लिखा है- 'अपने लिग्वने में मैंने यही किया है । देखे या भगते तत्त्व को लिया है, अपनी भावना का उसे मेल दिया है और कल्पना से गढ़ कर
१. 'हमारी साहित्यिक समस्याएं (प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी), पृष्ट ६३ २. "माहित्यकार आपके ख्याल की दुनिया को साफ रखता है |". 'जीवन और साहित्य'
शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ F४) ३. 'साहित्य और साधना' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ ७५) ४. 'स्थायी और उच्च साहित्य' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ ३३३)