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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व में वे कहते हैं-"प्रकृति की दूसरी शक्तियों की भाँति मनुष्य की सृजन-वृत्ति भी एक शक्ति है। प्रकृति की दुर्दमनीय शक्तियों-जलवायु और बिजली-को मनुष्य ने उपयोग के वश में कर लिया है तो क्या, वह अपनी सृजन शक्ति को स्वाभाविक मार्ग दे अपने जीवन के प्रानन्द के स्रोत को संकट का कारण होने से नहीं बचा सकता ? प्रश्न है, केवल परिस्थितियों के अनुसार नैतिक धारणा का, मार्ग बदलने का !" यद्यपि अपने इस उपन्यास में यशपाल ने यह दिखाया है कि कोई व्यक्ति सृजन-वृत्ति से परे नहीं हो सकता, फिर भी इससे सम्बद्ध नैतिकता के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण है, यह स्पष्ट नहीं हो सका है। क्या शैल का मार्ग सामाजिक जीवन के लिये हितकर है ? क्या यही सृजन-वृत्ति का स्वाभाविक मार्ग है ? स्पाट है, परिस्थितियों के अनुसार नैतिक धारणा को बदलने की बात यह नहीं हुई। यशपाल अपनी स्थापना में स्वयं उलझ गये हैं । जैनेन्द्र ने समाज की वर्तमान स्थिति एवं उसके आधार और उसकी नैतिक धारणा के जिस वैषम्य की ओर संकेत किया है, यशपाल उससे कुछ भी अधिक नहीं कर पाये हैं।
वक्तव्य को और भी अधिक स्पष्ट करने के लिये जैनेन्द्र के किसी पात्र का विश्लेषणात्मक अध्ययन कीजिये । मृणाल को ही लीजिये । लेखक के प्रति किसी प्रकार का अन्याय न हो, इसके लिये यह आवश्यक है कि सारी परिस्थिति ध्यान में रखी जाय ।
मृणाल को पति के यहाँ हर प्रकार की यातनाएँ मिलती हैं । कारण(क) उसने शीला के भाई से केवल मानसिक प्रेम किया।
(ख) पर यह कोई अपराध नहीं था, यदि वह चुप रह जाती । इसीलिये उसका असल अपराध था-पति पर इस रहस्य को प्रकट करना । यहाँ जनेन्द्र इस बात की ओर संकेत करना चाहते हैं कि हमारे समाज में ईमानदारी के लिये स्थान नहीं। अपनी इस बात को छिपा कर मृणाल स्त्री-शिरोमणि हो सकती थी।
(ग) दूसरी ओर जैनेन्द्र यह दिखलाते हैं कि मृणाल का पति स्वयं शराबी और दुश्चरित्र है । लेकिन वह पुरुष जो है, नियमों से परे, नियमों का विधायक । इसी असंतुलित नैतिक आधार के कारण तो घर के घर नष्ट हो रहे हैं । एक ओर जहाँ नारी से मानवोत्तर नैतिकता की माँग की जाती है, वहीं, दूसरी ओर, पुरुष नैतिकता की सर्वथा उपेक्षा करते हुये पाये जाते हैं।
(घ) पति के घर से निष्कासन के पश्चात् मृणाल के लिये मायके में कोई स्थान न था ! वहाँ भी उसका स्वागत बेतों से किया जा चुका था। इन सारी परिस्थितियों के पीछे मानों जैनेन्द्र व्यंग्य करते हों-'मन की मानव धर्मशास्त्री व्याख्या के बाद से हमारा समाज देवी के सामने सिर झुका सकता है, रमणी के प्रति आवेश और आकुलता दिखला सकता है, लेकिन मानवी के प्रति मानवोचित व्यवहार नहीं कर सकता !"