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________________ जैनेन्द्र के उपन्यास १८६ चिन्तनको प्रभविष्णु (वही, पृ० १८३ ) न मानना और फिर उन्हें 'विश्व के थोड़ेसे विचारोत्तेजक लेखकों' में स्थान देना (वही, पृ० १८८) कुछ अर्थ नहीं रखता । जैनेन्द्र में न तो तथाकथित बदनाम भावुकता है, न वे 'मौजूदा स्थिति' अथवा स्वीकृत मर्यादाओं के पक्के समर्थक' हैं, और न उनमें 'स्पष्ट लक्ष्य का प्रभाव' ही है । सच बात तो यह है कि कोई भी व्यक्तिवादी, यदि उसमें 'बौद्धिक गहनता' है ( साहित्य - चिन्ता, पृ० १८८), 'मौजूदा स्थिति का समर्थक' नहीं हो सकता । व्यक्तिवाद का जिन्होंने घोड़ा भी अध्ययन किया है, वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि सच्चा व्यक्तिवादी अराजकतावादी ( Anarchist ) होता है । यह तो सामाजिक विकास की चरम परिणति है, जिसका स्वप्न सदा से संसार के महानतम व्यक्ति देखते आये हैं । यह स्थिति जहाँ व्यक्ति को अबाध अधिकार (पूर्ण स्वतंत्रता) देती है, वहीं वह व्यक्ति से इस बात की भी आशा रखती है कि वह किसी भी अवस्था में दूसरे के अधिकार का अनादर न करेगा | जैनेन्द्र के व्यक्तिवाद को, जो कभी निकट न आने वाले क्षितिज की तरह मानव विकास की मंजिलों को चुनौती देता रहा है, डा० देवराज 'मर्यादानों के समर्थक' की जंजीरों में जकड़ना चाहते हैं । मैं मानता हूँ कि जैनेन्द्र इसी अर्थ में व्यक्तिवादी हैं और ऐसा व्यक्ति 'मौजूदा स्थिति' का कभी समर्थक नहीं हो सकता । 'त्याग-पत्र' में एक स्थान पर जैनेन्द्र कहते हैं- " कहीं क्यों, सब गड़बड़ ही गड़बड़ है । जीवन ही हमारा गलत है । सारा चवकर यह ऊटपटाँग है । इसमें तर्क नहीं है, संगति नहीं है, कुछ नहीं है ।" ऊपर जैनेन्द्र इतना ही कह कर चुप रह जाते तो यह निराशावादी और निषेधात्मक (Negative) दृष्टिकोण होता । पर आगे वे और भी कुछ कहते है जो कम महत्त्वपूर्ण नहीं--" इससे कुछ होना होगा, जरूर कुछ करना होगा ।" "कुछ नहीं है', कह कर बहुत कुछ को अस्वीकार करने की जो शक्ति जैनेन्द्र में है, वह उन्हें कभी 'मौजूदा स्थिति' का समर्थक नहीं होने दे सकती है। मौजूदा स्थिति से उत्पन्न घोर प्रसन्तोष ही तो जैनेन्द्र को हमारे विशृंखल नैतिक जीवन का चित्र देने को प्रेरित करता है । जैनेन्द्र कहते हैं—‘कुछ करना होगा' । इस 'कुछ' का समाधान ही वे अपने साहित्य में ढूँढ़ते रहे हैं । जैसा ऊपर के उद्धरण से स्पष्ट है, जैनेन्द्र यह मानते हैं कि हमारे जीवन में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है । इसलिये नये ग्राधार पर हमे श्रपने जीवन का पुनर्निर्माण करना होगा । यह पुनर्निर्माण नंतिक आधार पर होगा । सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन से अधिक महत्त्वपूर्ण है मनुष्य का भीतरी परिवर्तन । जब तक मनुष्य की चेतना का संस्कार नहीं होता, बाहरी विधि-विधानों से नियंत्रित उसकी पशुता चाहे जब कभी उमड़ कर प्रलय का दृश्य उपस्थित कर सकती है । जैनेन्द्र ने जिन समस्याओं को उठाया है, यशपाल ने 'दादा कॉमरेड' में समाजवादी दृष्टिकोण से उनका समाधान प्रस्तुत किया है । "दादा कॉमरेड" के 'दो शब्द '
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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