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________________ १८० जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व सामर्थ्य रखते हैं, वैसे भीतर से सुलगने को वे अच्छा गुण नहीं मानते । ____ उन्होंने अपने विशिष्ट जीवन में दो विशेषतायें पंदा की हैं। एक तो अस्वीकार करते हुए सब कुछ स्वीकार कर लेने की और दूसरी विनम्रता घोषित करते-करते सर्वश्रेष्ठ बन जाने की । अपनी बड़ाई का उन्हें मान है और अपने ज्ञान पर उन्हें विश्वास है; इन दोनों बातों को वे बड़प्पन की भावना के प्रतिकूल मानते हैं । इसलिए उनमें एक विशिष्ट सम्भाषण-शैली पनप सकी है। लेखन में भी वे शैलीकार कुछ इसलिए भी हैं कि जो सब कहते हैं, वह उनका कहना कैसे हो, जो सब की भाषा हो, वह उनकी भाषा कैसे हो सकती है ? इन्सानी माद्दे की परख में भी उन्होंने अपने अनेक सम-सामयिकों से अधिक निशंकता का परिचय दिया है । सुनीता के नारीत्व और स्त्रीत्व को अलग-अलग कर देने के लिए उन्होंने उसे निर्वसन तक कर दिया है । सुनीता को आज की द्रौपदी कहें तो क्या अनुचित है ? आज सुनीता को हमने समझा है तो यही कि वह उस नागरिक की तरह है जो लोकमंगल की भावना से अभिप्रेरित होकर अपना शरीर किसी फ़िजीशियन की मेज पर फैला दे । उसकी नग्नता में द्रौपदी की असमर्थता यद्यपि नहीं है, पर माताहारी की निर्वर्गीयता अवश्य है । इसका बिल्कुल उल्टा 'उग्र' में है। नारी के शरीर को निर्वसन करके निर्विकार रह सकना यदि सम्भव है तो क्या जैनेन्द्र जी ने अपेक्षित 'कल्चर' प्राप्त कर ली है ? सामाजिक परिस्थितियों ने सर्वसामान्य के लिए वैसा कर सकना असम्भव कर दिया है । जैनेन्द्र जी कोई 'मोरालिस्ट' या मनुष्य की स्वाभाविक वासनाओं के दमन की बात कहते हों, यह बात नहीं है। कभी-कभी तो लगता है कि स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों को सुनिश्चित करने वाली परिवार-प्रणाली को ही वे अस्वीकार करते हैं। 'सेक्स' पर जैनेन्द्र जी के विचार बूढ़े बटण्ड रसल के समान नवीनता प्रिय हैं। प्रतीत होता है कि जीवन में अधिक विश्राम कर सकने के कारण वे यौनविज्ञान के प्राचार्य अज्ञातरूप से बन गये । हिन्दी-साहित्यकारों में जैनेन्द्र जी ने नये युवक-युवतियों को अपने सुलझे हुए विश्लेषण से जितना उपकृत किया है, उतना किसी दूसरे ने शायद ही किया हो । बात यह है कि उनके विषय ही दो हैं-दर्शन और काम । उनके साहित्य की मूल प्रेरणा एक ही है, चाहे उसे दार्शनिक वासना कह लीजिए अथवा वासनात्मक दार्शनिकता । विचारों से व्यक्तिवादी होते हुए भी जैनेन्द्र जी दूसरों के प्रति उदार हैं । यहां तक कि अपने बच्चों और भक्तों पर भी अपने आपको नहीं लादते । सामाजिक शिष्टाचार और दूसरे दायित्वों को एक उत्तरदायी नागरिक की तरह निभाते हुए
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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