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________________ जैनेन्द्र कुमार : एक मूल्यांकन १७६ कोई स्थिति नहीं है ? साहित्यकार के लिए कम-से-कम केवल आत्मोपलब्धि में जीवन का चरम विकास नहीं है, किसी सन्त के लिये भले ही हो । जैनेन्द्र जी की प्रतिभा वर्तमान को उलट-पुलट कर देखने में ही अधिक प्रखर हुई है । कल की ग्रह वह नहीं ले सकती, नई दुनिया के नये क्षितिज निर्माण नहीं कर सकती । इसीलिये उन्होंने आज तक युगान्तरकारी कुछ नहीं लिखा । उनकी दृष्टि में पैठ है और मोपासाँ की तरह वह भी जीवन को उलट-पुलट कर उसकी हर तह को साफ खोल देते हैं । सरसता में वह शरत् चन्द्र की समता में बैठते हैं । पर मोपासाँ की स्वाभाविकता और शरत् की सम्वेदनशीलता उनमें नहीं है । जैनेन्द्र जी का सारा-का-सारा साहित्य विश्लेषणात्मक है, किन्हीं सिद्धान्तों या किन्हीं सामाजिक परम्पराओं के विश्लेषण से युक्त | इसलिए उनकी कहानियों का कलेवर बड़ा नहीं होता । उनके उपन्यास भी बड़े नहीं होते । कहा जाय तो उनके उपन्यास बड़ी कहानियां - मात्र होते हैं । शरत् चन्द्र ने 'त्याग-पत्र', 'सुनीता' और 'सुखदा' जितनी लंबी कहानियाँ शायद बहुत-सी लिखी हैं । जहाँ विश्लेषण हैं वहाँ रचनाकार की आस्था नहीं रह सकती; जहां प्रश्न है, वहाँ सामंजस्य नहीं रह सकता । जैनेन्द्र जी इकाई में समष्टि की खोज करते हैं, जब कि इकाई का सामंजस्य ही समष्टि है। इकाई में कोई शून्य भले ही खोज ले और उसे समष्टि समझ कर भले ही सन्तोष कर ले | इधर जैनेन्द्र जी की प्रेरणा बुद्धि की ओर से श्राने लगी है। समाज के शोषितों और संत्रस्तों को देखकर भी उनके हृदय में टीस नहीं उठती, मात्र बौद्धिक सहानुभूति होती है । ऐसा क्यों होता है ? शायद इसके मूल में यही बात रही होगी कि उनके जीवन में कभी ऐसे क्षरण नहीं आये, जब अपनी असमर्थता पर उनके नेत्रों सू छलक पाये हों। जिसके अपने पैर में कभी बिवाई नहीं फटी, जिसने शोषण र उत्पीड़न को नहीं सहा, वह इन्सान वर्तमान की कुरूपता, ग्लानि श्रौर विक्षोभ से दूर रह सकता है और उसी के लिए दार्शनिक बने रहकर अपने ग्रहम् को सन्तोष देने की सुविधा भी रह सकती है । जैनेन्द्र जी स्वयं मध्यवित्त के समाज से प्राये हैं । उनके जीवन में आर्थिक कठिनाइयाँ भी आई हैं, पर उनके साहित्य को पढ़कर यह भली-भाँति कल्पना की जा सकती है कि वह जीवन के यथार्थ से दूर हट कर साहित्य-साधना करते हैं; उसके लिए वे अपनी दुर्द्धर्ष प्रतिभा के ऋणी कम हैं, किसी दूसरे के उत्सर्ग और त्याग के ऋरणी अधिक । जैनेन्द्र जी कभी-कभी हँसते हैं, पर हँसते हैं तो पूर्ण निश्छलता चौर हराई के साथ हँसते हैं । वह भीतर से सुलगकर भी बाहर से मुस्कराने की
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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