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________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व उनमें व्यामोह नहीं है; उनकी साहित्यिक अभिव्यक्ति में 'फैशन' है, सम्वेदन नहीं है, जीवन की मात्र दार्शनिक मीमांसा जड़ता से कुछ भी अलग नहीं है । जैनेन्द्र जी का साहित्य जड़ हो जाता, यदि उनमें 'फैशन' न होता । इसीलिए इन दो विरोधी तत्त्वों से मिलकर उन्हें एक 'डिसपैशनेट' दृष्टि मिल गई । इसी कारण उनका साहित्य वर्ग और देश-काल की सीमा से ऊपर जाता है । १७८ वैसे जैनेन्द्र जी को समझना मुश्किल काम है । इसका पहला कारण उनकी असाधारण सरलता है, जो सामान्यत: भ्रमकारक है; दूसरा कारण है उनकी स्वीकार भावना | किसी दूसरे के द्वारा प्रारोपित यथार्थ को अपने सिर पर धारण करके वह कभी चलते नहीं । शायद इसीलिए अपना जीवन एक कांग्रेस वालण्टियर के रूप में आरम्भ करके भी वह नेता नहीं बने। एक बार डॉक्टर राधाकृष्णन ने अपने परिवर्तित स्वरूपों की स्वाभाविकता की चर्चा करते हुए कहा था कि एक ही व्यक्ति में राजनीतिक, दार्शनिक और कलाकार सभी समाविष्ट होते हैं । पर यह स्पष्ट है कि नेता बनने के लिए जिन गुरणों की आवश्यकता है, वे जैनेन्द्र जी में नहीं हैं । हाँ, वह सन्त हो सकते हैं और सन्तों की निष्क्रियता, दार्शनिकता और श्रात्मनिष्ठा, उनमें प्रचुर है । 1 मैं उन्हें सन्त इसलिए कहता हूँ कि उन्होंने अपने को जीत लिया है । वह क्रोध नहीं करते । वह मूर्ख होता है, जिसे क्रोध नहीं आता, पर वह बुद्धिमान है जो क्रोध नहीं करता — यह एक पुरानी सूक्ति है । वे सच्चे अर्थों में हिंसक हैं । वे इसीलिए गांधीवादी सर्वोपरि हैं। पर वंसे गाँधीवाद को भी वह ग्रधूरा जीवन-दर्शन मानते हैं और उसको सम्पूर्ण करने की भी उनकी महत्वाकांक्षा रही है । मार्क्सवाद को 'कुण्ठा का दर्शन' मानते हैं, बार-बार यह कहते-कहते अघाते नहीं हैं । पर यह क्या, दार्शनिक और सन्त होकर भी जैनेन्द्र जी के साहित्य में कोई दर्शन मुखर नहीं हो सका । केवल आत्मोपलब्धि मात्र हो जाने से जीवन-दर्शन प्रस्तुत करने की क्षमता किसी के साहित्य में नहीं श्रा जाती । जीवन का व्यापक ढाँचा बनाने के लिए गाँधी और मार्क्स जैसा व्यापक और विराट् जीवन जीना होता है । जीवन की नींव वैज्ञानिकता के आधार पर खड़ी करनी होती है । इसके बिना कोई भी जीवन-दर्शन की इमारत खड़ी नहीं कर सकता । जैनेन्द्र जी का 'बज़र्वेशन' बहुमुखी है और साहित्य-सृजन में उससे उन्हें बड़ी सहायता मिली है । उनके पात्र अन्त में अपनी खोज कर लेते हैं । किसी-न-किसी सत्य से अवश्य अवगत हो जाते हैं । जैनेन्द्र जी के सभी कथा-पात्रों में यही एक विशेषता है कि वे किसी-न-किसी सत्य से अवगत हो जाते हैं । इसी को साधकों की भाषा में आत्मोपलब्धि होना कहते हैं । पर क्या इस स्थिति से आगे मनुष्य की और
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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