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________________ श्री महावीर अधिकारी जैनेन्द्र कुमार : एक मूल्यांकन जैनेन्द्र कुमार में अपने चारों ओर की दुनिया को देख सकने की समवेत दृष्टि है और इस दृष्टि के प्रकाश में इसे प्रस्तुत करने की क्षमता भी है । मैं उन्हें एक साहित्यिक प्राचार्य के रूप में देखता हूँ । जब मैं छोटा था और उनका साहित्य पढ़ा करता था, तो उनके स्वरूप की मैंने एक तस्वीर बनाई थी। उस तस्वीर में एक विशालकाय, लगभग छः फुट से ऊपर और बड़ी-बड़ी आँखों वाला एक आदमी उभर आया था, जो कम-से-कम साठ को पार कर चुका होगा और उसके सब-के-सब केश पक चुके होंगे; पर जब मैंने उन्हें देखा-अाज से बारह वर्ष पूर्व, या आज भी देखता हूँ, तो मुझे अपनी बुद्धि पर तरस पाता है। जैनेन्द्र जी बिल्कुल ही वैसे नहीं निकले । निकले तो कठिया बादाम की तरह, जिसके अन्दर पैठ जाना सहज नहीं, जब तक उसे पत्थर से टकरा न दिया जाय। __जब मैंने उन्हें देखा तो यह भी देखना शुरू किया कि उनमें 'त्यागपत्र' लिखने वाला देशभक्त किधर है । 'कल्याणी' का मानव मन की असल गहराइयों में डूबने वाला चिन्तक और 'सुनीता' की सरसता सरसाने वाला साहित्यकार किधर है ? किस प्रकार वह एक ही कलेवर में स्वाभाविक रूप से रह सकता है ? तब यह प्रश्न मेरे लिए साहित्य से अधिक प्राकृति-विज्ञान का हो उठा। आप उनके कुचित भाल को देखिए, उसके नीचे आर-पार तक फैली गहरी और घनी बरौनियों को देखिए, लम्बी पलकों के नीचे दबी हुई आँखों को, हल्की और ठिंगनी चिबुक को गौर सर्वोपरि उनकी दार्शनिक नासिका को देखिए । उनके भाल पर 'त्यागपत्र' का दढ़ प्रान्मविश्वास है; भौहों और होठों में साधारण सरसता नहीं है, वरन ऐसी उद्दाम वासना के दर्शन होते हैं, जो किसी के मात्र अधर-रसपान से परितृप्त नहीं हो जाती। यह भावना उन्हें मात्र सरस 'सेक्स' की तस्वीरें खींचने वाला कलाकार बनाकर छोड़ देती, अगर उनके मुंह पर यह दार्शनिक नासिका न होती। ( ११७ )
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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