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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
है । उनके पात्रों को हम अपने चारों ओर नहीं देखते, क्योंकि वे असामान्य हैं, अतिसंवेदित हैं, अतिवादी भावस्थितियाँ और संवेदन-निकायों के प्रतीक हैं। वे संपूर्ण समाज की अंतरंगी चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं और कर्तव्याकर्तव्य से जूझते हुये गीतादर्शन की शरण लेते हैं । उनकी सीमा है प्रेम और दाम्पत्य, और इस सूक्ष्म को उन्होंने अपनी-संवेदना के विस्तार से विराट बना दिया है । उनमें दाम्पत्य चेतना और सामाजिक बोध धर्म-क्षेत्र की ऊहापोही चेतना तक पहुँच गया है । पात्र वहां युयुत्सु हैं, जिजीवेष नहीं । कर्मक्षेत्र को धर्मक्षेत्र में बदल कर जैनेन्द्र हमारे प्रथित सतही मूल्यों को संकट में डाल देते हैं और उनका सारा साहित्य प्रच्छन्न व्यंग बन गया है।
संक्रांतिकालीन और ह्रासोन्मुख संस्कृति का वह विराट क्षण जैनेन्द्र के उपन्यासों में संपुटित है जो वर्तमानकालिक संस्थितियों के भीतर से व्यक्ति और समाज की दुर्बलतानों की ओर उँगली उठाता है । उनके उपन्यासों का अध्ययन करते हुये हम समसामयिक मानस की आवेगजनक भूमिकानों पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर सकते हैं और इसके साथ ही परिवेशीय संदर्भ की प्रकृति की पूरी-पूरी जानकारी का निर्वाह कर सकते हैं। भारतीय मध्यवर्ग के विकास की ऐतिहासिक और धाराप्रवाहिक चेतना के भीतर से समसामयिक निरोधों को वाणी देने के लिये जैसी सतर्क, अनिश्चित- व्यंजक और समर्थ भाषा-शैली चाहिये, वह जैनेन्द्र के पास पर्याप्त हैनहीं, उसे उन्होंने ही गढ़ा है और इस प्रकार खड़ी बोली की सक्षमता को दूर तक फैलाया है । परिवर्तनशील संस्कृति को औपन्यासिक स्वरूप पालोचक के लिये अत्यंत
आकर्षक विषय बन जाता है । शिल्पगत वैलक्षण्य और आविष्कार के पीछे इस सांस्कृतिक सार्थकता को पकड़ना ही समीक्षक का कार्य है । जैनेन्द्र के उपन्यासों में अवचेतनीय स्तर पर ऐसे संवेदनों को बुद्धि-गम्य बनाने का उपक्रम है जो शैली या शिल्प की व्यक्तिगत उपलब्धि-मात्र नहीं कहे जा सकते, वरन् जिनमें सामसामयिक संस्कृति की स्थिति का स्पष्ट प्रतिबिंब है । इस सांस्कृतिक द्वंद्व को जैनेन्द्र ने अनचाहे-अनजाने ही उभार दिया है और वह बौद्धिक बनते हुये भी आत्मचेतन नहीं हैं। उनकी कला के लिये यह कल्याणकर ही रहा है, क्योंकि समस्याओं और परिणामों के सम्बंध में बौद्धिक जागरूकता रचना की चतुर्दिकी और चक्रांती प्रभावमयता को खण्डित नहीं करती । जैनेन्द्र के उपन्यास मध्यवर्गीय संस्कृति की प्राज की स्थिति के बिब-प्रतिबिंब चित्र हैं, उनमें नई संस्कृति की ओर संक्रमण का कोई प्रत्यक्ष प्रयत्न नहीं है । संक्रांति को पार कर लेने के बाद ही साहित्यिक पुनर्निर्माण का प्रश्न उठ सकता है । जैमेन्द्र यदि संक्रांति के बीच में डबते-उतराते रहते हैं तो खण्डित बौद्धिकता के इस युग में हम उन्हें कोई किनारा नहीं दिखा सकते । अलक्षित रहने में ही उनकी सामर्थ्य है।
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