SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपन्यासकार जैनेन्द्र : पुनर्मूल्यांकन १७५ विवरण और वर्णन को त्याग कर केवल मनश्चेतना की भूमिका पर पात्रों को खड़ा कर जैनेन्द्र उन्हें गणित के प्रतीक जैसी सार्वभौमिकता दे देते हैं । वे बेचारेपन की मुद्रा बना कर हमारा हृदय जीत लेते हैं । विचार को व्यथा बनाने में ही जैनेन्द्र की प्रोपन्यासिक कला को महदांश खर्च हुआ है । उनके साहित्य को हम मध्यवर्ग के शिक्षित मन की वैवर्त्तीय भूमिका दे कर ही नई सांस्कृतिक चेतना का अंग बना सकते हैं । जैनेन्द्र के उपन्यास केवल रूपात्मक समीक्षा में पकड़ में नहीं आ सकते । वस्तुसंगठन, चरित्र-चित्रण, सम्वाद, भाषा-शैली, उद्देश्य ऐसा बँधा हुआ ढाँचा उनके उपन्यासों को अधूरा भी नहीं खोलता । वे मूल्यगत हैं और व्यापकतम सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भ में ही सार्थक होते हैं । यद्यपि उनके आत्मकथात्मक, डायरीगत, गौणपात्रगत और पत्रगत शैलियों और संदर्भों का विस्तृत उपयोग मिलता है और वे पश्चिमी उपन्यास के अधुनातन शिल्प का श्राभास देते हैं, सच तो यह है कि वे बहुत कुछ निबन्धात्मक हैं और विकसित औपन्यासिक शिल्प तथा मनोविश्लेषण - शास्त्र के नए जीवन मूल्यों को उभारने के लिये उपकरण मात्र हैं । उनमें हमें जीवन चिन्तक की प्रातिभ अन्तर्दृष्टि का वरदान मिला है। एक प्रकार से उन्हें मनोविश्लेषण - शास्त्र की समानान्तर उपलब्धि कहा जा सकता है । यह स्पष्ट है कि जैनेन्द्र के उपन्यास विभिन्न संदर्भों में अपने मूल्यों का निर्वाह करते हैं । समीक्षक के लिए उनकी कृतियों और उस परिवेश के बीच में संबंध स्थापित करना होता है जिसका वह अंग रहा है और पाठकों के भाव जगत से उनका संबंध जोड़ कर उसे उनकी लोकप्रियता या विरोध पर भी विचार करना होता है । रचनाओं के स्रोत चाहे समाज में हों या व्यक्ति (लेखक) में, कृति की समसामयिक महत्ता पर प्रकाश नहीं डाल सकते । इसीलिये प्रत्येक रचना को हमें मूल्यों पर परखना आवश्यक हो जाता है । सब लेकर वह क्या है ? यह संभव है कि रचना एक साथ कई भूमिकाओं पर समर्थ हो । तब देखना होगा कि कौन-सी भूमिका प्रमुख है। मुद्रित रचना में सूक्ष्म और अदृश्य सांस्कृतिक मुद्राओं का पता लगा कर हम कृति की वास्तविकता और उसके कला-सौष्ठव का रहस्योद्घाटन कर सकते 1 इस दृष्टि से जैनेन्द्र के उपन्यास मध्यवर्गीय संस्कृति के अनिश्चय, पलायनमनोवृत्ति, आदर्शवाद के आवरण में यथार्थ जीवन के वैषम्य को छिपाने की छलना, afaar की विवशता और उसकी हार के सूचक हैं । यदि उनकी रचनाएँ विकृत हैं, या अस्पष्ट हैं तो उनके पीछे मध्यवर्गीय संस्कृति की संस्थिति है । उसमें मिथ्या या विकृति को जानबूझ कर नहीं उभारा गया है । ये तत्त्व अनिवार्यतः श्राये हैं । जैनेन्द्र ने अपने उपन्यासों में बार-बार 'पिंड में ब्रह्माण्ड' की बात कही है और उनके उपन्यासों मे मानव-प्रकृति के भीतर से संस्कृति के विराट को प्रतिबिम्बत किया गया
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy