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________________ ५७४ मैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व कर मृणाल को देवी बना कर भी समाज के मर्म पर चोट करते हैं। उनका प्रतिआदर्शवाद जलता हुआ अंगारा है। 'कल्याणी' में पति की धनलिप्सा पत्नी के पूर्व-प्रेम का भी शोषण करना चाहती है और जहाँ वह दुर्नीति है, वहाँ दाम्पत्य छलना मात्र है। इस प्रकार इन रचनाओं में प्रेम और विवाह के द्वन्द के भीतर से दाम्पत्य को अग्नि परीक्षा में डाला गया है और खुलते हुए समाज के लिए नये नैतिक मूल्यों के अन्वेषण का साहस किया गया है । 'व्यतीत' में जैनेन्द्र एक बार फिर 'सुनीता' की भूमिका पर लौट गये हैं और यहाँ अनिता के द्वारा जयन्त के पुरुषत्व को चुनौती मिलती है ('सुनीता' में हरिप्रसन्न ने सुनीता के सतीत्व को चुनौती दी थी) और जयन्त आत्मिक प्रेम पर टिक कर अनिता की देह को बचा जाता है। यही नहीं, वह चंद्रा, श्रीमती बघावर, कपिला सबसे अपनी देह को बचा जाता है ( और मन को भी)। प्रेम की सार्थकता प्रात्मा की भूमिका पर ही है । उसमें देह की अस्वीकृति भी छिपी है। नीति-अनीति का प्रश्न इसी आत्मिक भूमिका पर चल सकता है, वह व्यक्तिगत है, सामाजिक नहीं । मध्यवर्गीय मनश्चेतना को जड़ता की भूमिका से हटाकर प्रकाश और चैतन्य तक पहुँचाने वाले कलाकार के रूप में हम जैनेन्द्र को क्यों नहीं देखें ? यह अवश्य है कि मध्ययुगीन संस्कृति के उपादान उसी रूप में नई मध्यवर्गीय संस्कृति के उपादान नहीं बन सकते, परन्तु व्यापक सांस्कृतिक संदर्भो में हमें मानव की मूल चेतना को उभारना होगा । गीता-दर्शन को व्यवहार में लाने की साहित्यिक चेष्टा का मर्त स्वरूप ही तो जैनेन्द्र का साहित्य है । वह हमारे टूटते हुए मूल्यों को नई शरण देता है । भविष्यती संस्कृति और प्राचीन भारतीय संस्कृति के बीच में वह संयोजक चिह्न बनकर रह गया है, परन्तु हम चाहें तो उसे प्रश्न चिह्न के रूप में भी देख सकते हैं । कृति की परख अभिरुचि-मूलक ही नहीं, सामर्थ्य-मूलक भी होती है । पात्रों के मानवीय और व्यक्तिगत सम्बन्धों के भीतर से वह समस्त सांस्कृतिक संदर्भो को अपने भीतर खींच लेती है। विशेषतः उपन्यास-जो मानवीय संबंधों की उपेक्षा पर ही नहीं रुकता । इसीलिए जैनेन्द्र के उपन्यासों में नर-नारी के प्रेम और विवाह के संबंधों के भीतर से नई मध्यवर्गीय संस्कृति का सब कुछ प्रश्नसात हो गया है । ___ यह स्पष्ट है कि जैनेन्द्र के उपन्यास अनुभूत नहीं, कल्पित और अनुमानित हैं । वे उनके विचारों के औपन्यासिक और प्रायोगिक संस्करण हैं । इसी से पात्र हम पर उतना ही खुलते हैं, जितना जैनेन्द्र उन्हें खोलना चाहते हैं । अपने इन कथा-प्रयोगों में वे मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण-शास्त्र की (विशेषतः फ्रायड की) नई उपलब्धियों को भी लेते हैं, परन्तु यह जैनेन्द्र की औपन्यासिक प्रतिभा की विशेषता है कि उनके पात्र हमें संवेदनीय लगते हैं और अबूझा रह कर भी हमारे निकट के बन जाते हैं ।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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