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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व ते हैं और अपने उपन्यासों की समस्यामूलकता का प्राग्रह लेकर सामने आते हैं । भी जीवन और दाम्पत्य की सारी संभावनाओं को उन्होंने गणित के सूत्रों की नेक संभावनाओं के सदृश हल करना चाहा है और इसीलिये वह अतिवादी माओं तक गये हैं और उनके समाधान ही विचित्र नहीं है, उनका जीवन-चित्रण पी अमर्यादिक और अस्वाभाविक बन गया है। उनके पात्र विस्फोटक बन गये हैं और उनकी ऊर्जा हेमलैटी किंकर्तव्यता में बँध कर विमूढ़ता की मुद्रा बन गई है। यह पष्ट है कि अपने उपन्यासों में जैनेन्द्र विचार भी उभारते हैं और व्यथा भी, और इनकी कथा विवारक उपन्यासकार की भाव-साधना बन गई है। उसकी सामाजिक कांतदशिता दार्शनिक ऊहापोह में खो गई है, परन्तु एक बार जैनेन्द्र की औपन्यासिकता के इस स्वरूप को स्वीकार करने के बाद उनसे किसी प्रकार की शिकायत नहीं रह जाती।
जैनेन्द्र का साहित्य संक्रांतिकालीन साहित्य है। उसमें मध्यवर्ग पहली बार अपने प्रति सचेतन और जागरूक दिखलाई देता है और अपनी मान्यताओं के संबंध में प्रश्न उठाता है। प्रेमचंद का साहित्य मध्यवर्ग के राष्ट्रीय, सुधारवादी और सत्याग्रही कर्मयोग का दर्पण है। 'सेवासदन', 'प्रेमाश्रम', 'रंगभूमि' और 'कर्मभूमि' जैसे नाम ही उनके दृष्टिकोण को प्रकट कर देते हैं । वह मध्यवर्ग की आस्था के कलाकार हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के नवजागरण से सारा रस खींचकर उन्होंने अपने मानववाद को पल्लवित किया है, परन्तु यह मानववाद उनकी सीमा भी बन गया है । वह समझौते में समाप्त होता है और मूलगत प्रश्नों को बचा जाता है । अपने अंतिम उपन्यास 'गोदान' और 'कफ़न' संग्रह की कहानियों में वह प्रश्न पर होते दिखाई देते हैं । 'गोदान' के नगर-अंश में हमें उद्योगपतियों, पत्रकारों और क्लबों का परिचय मिलता है और उच्च मध्यवर्ग के खोखलेपन से हम परिचित हो जाते हैं। यह मध्यवर्ग स्वरति में लिप्त है और उसका दाम्पत्य पुरुषत्व पर नहीं, स्वार्थ और लिप्सा पर खड़ा है । 'कफन' की कहानियों में प्रेमचंद जैनेन्द्र के साथी ही नहीं, उनके मार्ग-प्रदर्शक भी हैं, परंतु इस नई दिशा को प्रेमचंद कोई नया मोड़ नहीं दे सके । वह बीत चुके थे । जैनेन्द्र ने इस नई दिशा को विशेष रूप से पल्लवित किया है।
'परस' में वह प्रेमचंद के साथ हैं, ''समाज को बचाकर भी वह व्यक्ति को नहीं तोडते. उसे प्रात्मबलिदानी बनाकर, दैनिक प्रेम की भूमिका से ऊपर उठाकर उसे आत्मिक प्रेम के 'सुन्न महल' में पहुँचा देते हैं, परंतु 'सुनीता' में जहाँ एक ओर वह अति-आदर्शवादी बन मये हैं, वहाँ प्रश्नमूलक होकर हमें संकट में भी डाल गये हैं। उन्होंने मध्यवर्ग के शिक्षित समाज को उसकी मान्यताओं की कसौटी पर