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उपन्यासकार जैनेन्द्र : पुनर्मूल्यांकन
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को लेकर दाम्पत्य के भीतर से ही प्रेम को चरितार्थ करना होगा । प्रेम को तप बनाकर ही हम विवाह को संस्था बन जाने से बचा सकेंगे । संस्था जड़ है, वह बन्धन है । प्रेम चेतन है, वह जीवन है । देह को अस्वीकार पर आत्मा की उपलब्धि होती है । विवाह को दम्पति के निःशंक आधिपत्य में बदल कर प्रेम के संकट से बचा जा सकता है । गेटे के 'साँरो ग्राफ वर्थर' से 'अन्ना करीनन' श्रौर 'घरे - बाहिरे' में होती हुई विवाहित जीवन में प्रेम के प्रवेश की समस्या का एक अत्यंत सूक्ष्म और समर्थ समाधान हमें जैनेन्द्र के उपन्यास देते हैं । उनकी चेतना सार्वभौमिक और सूक्ष्म है, क्योंकि वह आत्मिक है । प्रेमचंद ने 'कायाकल्प' में इस प्रश्न को उठाया था, परन्तु वह सामाजिक बोध ही दे सके, प्रेम की स्वर्गीयमयता का चित्र भी उन्होंने दिया, परन्तु विवाह को तोड़ कर प्रेम की प्रतिष्ठा करना उनका लक्ष्य था । जैनेन्द्र विवाह और प्रेम को एक साथ ही स्वीकार करते हैं और इसकी अनिवार्यता लेकर सामने आते । वह व्यक्ति को बचाते नहीं, उसे द्वन्द की पीड़ा में खपा डालते है । कहा गया है कि यह जैन-धर्म (अहिंसा) है, या जनेन्द्र धर्म (अव्यावहारिकता ) है जो शायद लेखक के अपने दर्शन की उपज है या व्यक्तिगत जीवन की अवचेतनीय भूमिका पर से प्राया हुआ आत्मप्रवंचना का सत्य है, परन्तु समीक्षक कदाचित् यह मानने के लिए तैयार नहीं कि उच्चतर सांस्कृतिक बोध में नारी-स्वातंत्र्य की समस्या विवाह और प्रेम के द्वन्द पर ही ग्रा कर ठहरती है और उसके समाधान में ही मनुष्य की चरितार्थता है । समस्या का एक समाधान माक्संवादियों की भोर से भी आया है जो आदिम मानव की यौन जीवन की उच्छृंखलता और निबन्धता पर लौटना चाहते हैं । राज्य नहीं रहेगा, वैसे ही विवाह भी नहीं रहेगा । परन्तु इसमें मानव के सांस्कृतिक विकास और उसके उच्चतर आत्मपरिष्कार की अस्वीकृति भी रहेगी । इसी से जैनेन्द्र विवाह को पति-पत्नी की एकात्म साधना का अभिन्न रूपक मान कर निरंतर प्रेम की छूट देते हैं । प्रकृति को खण्डित करके नहीं, उसे संस्कृत बनाकर ही हम मानव बनेंगे ।
'व्यतीत' जैनेन्द्र के इस समाधान को प्रयोग की एक नई भूमि देता है । उसमें स्त्री को व्यर्थ नहीं किया है, जो व्यर्थ धौर व्यतीत हो गया है, वह पुरुष है । परन्तु इस व्यर्थता और व्यतीतता में ही उसकी उच्चतर सांस्कारिकता और सार्थकता भी निहित है । जैनेन्द्र के अन्य उपन्यासों में पुरुष आक्रामक है और पत्नी का पूर्व प्रेमी या नया प्रेमी बनकर घर को तोड़ना चाहता है, परन्तु इस उपन्यास में अमीरी की भूमिका लेकर स्त्री प्रेमी के जीवन से हट जाती है और अपने घर को बनाए रखकर भी उसके प्रेम को देह के ताप से खण्डित रखना चाहती है । अन के निरंतर प्रहार से जयंत को बचाकर जैनेन्द्र प्रेम के प्रलिंगी रूप को चरितार्थता