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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व जीवन-दर्शन को इन शब्दों में रख दिया है : “हार (वह) हमारी नहीं होती, सिर्फ मिथ्या की होती है।' लेकिन सत्य क्या ? क्या सब स्नेह-बन्धनों को अस्वीकार करता जाये, यही सत्य है ? क्या उनकी पवित्रता और आंतरिकता को निर्वस्त्र और निरावलंब करता जाये, यही सत्य है ? नहीं, तो फिर इस जगत में कैसे चलना होगा? सब कुछ तो बाहर जाने के लिये है नहीं । अन्दर हमारे क्या कुछ घृणा, कर्दम, अपरूप नहीं है ? वह भीतर बन्द है, इसी में तो सान्त्वना है। ऊपर रूप है कि अपरूप भीतर रहे । ऐसा है तो क्या ? उचित ही नहीं है ? इसमें अन्यथा क्या है ? क्या सत्य है यह कि रूप को ऊपर नहीं रहने दिया जायेगा और अपरूप ऊपर और बाहर सब ओर फैलने देना होगा।
__नहीं, यह उलझन यों नहीं खुल सकती । उगे सुलझाना एक साधना है, बड़ी कठिन साधना है । साथ जाता है वह योगी है । साधना यह कि स्नेह को सत्य से कैसे मिलाया जाये । सत्य एक है, अखण्ड, निरवलंब है, निःसंग और निबोध है। स्नेह नाते खोजता है । इसका, उसका, सबका उसे संग चाहिये । वह अपने में नहीं है, अन्य में होकर है । इससे वह सब और संबंधों की सृष्टि करता है । सब संबंध अन्त में बंधन ही तो हैं । स्नेह उन बंधनों को रवता और फैलाता है। इन्हीं तारों से वह हमें यहाँ बाँधता है कि एकाकी होकर हम सूख न जायें, सपना होकर हम उड़ न
जायें।
कसे योग होगा इन दोनों का, सत्य और स्नेह का, भगवान जाने । लेकिन जसे भी हो, आदमी को यही करना है । स्नेह उसका जीवन है, सत्य उसका जीव्य है । दोनों के बिना वह कहीं नहीं है। लेकिन दोनों के मूल में जो पूरी तरह नहीं बैठ पाता है, यही उसकी समस्या है, इसी में उसका पुरुषार्थ है।" (पृ० १३६-१३:)
जो प्रेमी हो, बाद में भी प्रेमी हो, निरन्तर प्रेमी हो, तो पति को क्या कहना ? उसका प्राशीर्वाद उस प्रेमी को क्यों न मिले ? पत्नी को सब का प्रेम मिले, सब ही का प्रेम मिले । पत्नी के पति की होने की सार्थकता तभी है कि अभिन्नता इतनी हो कि पति का आरोप उस पर न पाये । इस उदारता और प्रेमपरता में ही विवाह की सार्थकता है। यों सत्य भी बना रहता है और स्नेह भी बना रहता है । विवाह का सत्य स्नेह से जहाँ अभिनय है, वहीं जीवन की पूर्णता है । यह जनेन्द्र की विचार-धारा की परिणति है। कट्टो से (भुवन) मोहनी तक सुनीता, कल्याणी, मृणाल और सुखदा के बीच में लाकर जैनेन्द्र इसी दाम्पत्य-दर्शन को उजागर कर रहे हैं। विवाह तब संस्था न रहकर व्यक्ति की जीवन-साधना बन जाता है और वह मनुष्यता को चरितार्थ करने लगता है।
जैन-धर्म तप पर अडिग खड़ा है, परन्तु तप सबके लिये नहीं है । पंचमहाव्रतों