________________
उपन्यासकार जैनेंद्र : पुनर्मूल्यांकन
१६६ निकाल दी है। अब वह आत्मप्रवंचक नहीं, आत्मनिष्ठ है । इसीलिए वह अंकुठित और सहज भाव से अपनी देह को चड्डा के हाथ में सौंप देता है । जितेन जान लेता है कि उसका प्रेम अस्वीकृत नहीं है, परन्तु वह पति और पत्नी दोनों में से किसी को नहीं तोड़ सकता । वह दोनों को अधिक निकट ही ला सकता है, क्योंकि दोनों का उद्देश्य यही है कि वह अपने प्रति अहिंसक बने । नरेश के घर में पहुंचते ही पहले दिन जितेन ने जान लिया है कि वह विवाह को तोड़ नहीं सकेगा। मोहिनी जब उसके पूछने पर कहती है कि वह खुश है तो अनायास ही जितेन (सहाय) के मुंह से निकल जाता है : "खुश होने की बात ही है । देखता हूँ, यहाँ सब हैं और आधिपत्य पर इतना विश्वास कि शंका की छाया को जगह नहीं । तो इसको विवाह कहते हैं ?" (प० २६)
"विवाह क्या बंधन है ? नहीं, प्यार को लेकर वह बंधन नहीं है, क्योंकि पति नरेश ने समझ कर ही कहा है- "मोहिनी, मुह छिपाने की तुम्हारे लिये कोई बात नहीं । प्यार का हक सबको है। तुम्हारा, मेरा, उसका, सबका ।"और मोहिनी स्तब्ध रह गई है, क्योंकि इस तरह समझी जायेगी, ऐसा उसे गुमान न था।" (पृष्ठ ३३)
प्रश्न घर के बने रहने या मिटने का है। मोहिनी जब स्थिर दृष्टि से जितेन को देख कर पूछती है-"क्या मैं समझू कि आप घर मिटाना चाहते हैं ? तो वह स्थिति को स्पष्ट कर देता है,- मोहिनी, तुम जानती नहीं, यह चाहने की बात नहीं है । हमारे-तुम्हारे चाहने से क्या होता है ? न चाहने से भी क्या होता है ? न चाहने से भी कुछ नहीं होता । मैंने कहा न था तुम से कि जाओ, मुझे पकड़ा दो। आज तुम यह कर सकती हो। तुमसे कहता हूँ कि लो, लाओ, मुझे मिटा दो। तुम में हिम्मत नहीं है तो मैं क्या करूँ ? लेकिन मोहिनी, एक को मिटना होगा। इसमें मैं या तुम कछ नहीं कर सकते । मुझको न मिटायोगी तो अब फिर कहता हूँ कि तुम्हारा घर
(पृ० ५८) अन्त क्या बीच में नहीं है ? मिटना मोहिनी को क्यों पड़े ? जितेन मिट कर अपने प्रेम को सार्थक क्यों नहीं करे ? अंत में यही होता है और मोहिना उसे नहीं पकडवाती, वही अपने को व्यास के हाथों में सौंप देता है । मोहिनी का घर (दाम्पत्य) बच गया है और पति-पत्नी दोनों ने प्रेमी के प्रति उदार हो कर एक-दूसरे को और भी निकट से जान लिया है। दाम्पत्य के भीतर से यह अहिंसा की साधना नया सामाजिक (और मानववादी) जीवन-दर्शन नहीं तो और क्या है ?
विवाह सत्य है, परंतु प्रेम क्या असत्य है ? सत्य और स्नेह (प्रेम) दोनों की रक्षा करने में ही मानव-जीवन की सार्थकता है । एक साथ दोनों की रक्षा हो जाये यह तो साधारण साधना नहीं है। इसीलिये जैनेन्द्र ने उपन्यास के केन्द्र में अपने
मिटेगा।"