SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन्द्र : व्यक्तित्व र कृतित्व ग्रहण करती है। सुखदा को पति का साथ देने के लिए घर की चहारदीवारी से निकल कर नैत्री बनना पड़ता हैं, परंतु जैनेन्द्र की सुखदा को पति के बन्धन से मुक्त होने के लिए अपने से ही भगड़ना पड़ता है, क्योंकि जहाँ बन्धन नहीं हैं, वहाँ भी उसके संस्कार विद्रोह की कल्पना कर लेते हैं । यह स्पष्ट है कि बंधन बाहर के नहीं हैं, भीतर के हैं और एक बार तोड़ कर उन्हें जोड़ा नहीं जा सकता । रवीन्द्र के 'चार अध्याय' और शरच्चन्द के 'पथेर दावी' से प्रभावित होने पर भी जेनेन्द्र नारी विद्रोह की इस कहानी को मार्मिकता दे सके हैं। इसमें संदेह नहीं कि उनको सुखदा की तेजस्विता सुमन या 'कर्मभूमि' की सुखदा से कम नहीं है । यद्यपि वह श्रीपन्यासिक ( कर्ममयी) कम है, मानसीं अधिक हैं। एक कारण यह भी हैं कि वह व्यतीत है, बीत गई है और बीते की स्मृति में दंश तो है, परंतु जीवन नहीं है । फिर भी यह सच है कि वह विचारक उपन्यासकार का नया प्रयोग है । 'सुखदा' और 'विवर्त्त' में अंतर यह है कि 'सुखदा' में संकट की श्रोर साहस से बढ़ने वाली नारी का चित्रण है। जो कहीं भी आत्मरक्षक नहीं है, परंतु 'विवर्त्त' में विपत्ति अनाहूत प्राई है और एक ही समस्या के दो विभिन्न समाधान या चित्ररण हमें इन उपन्यासों के द्वारा मिल जाते हैं । भुवनमोहिनी को जो अनायास ही प्राप्त हो गया है, उसे हम कैसे अस्वीकार कर दें ? 'सुखदा' में नारी जीवन की मुक्ति की प्राकांक्षा पल्लवित है । वैवाहिक जीवन में भी पत्नी पत्नीत्व के बोझ से मुक्त होकर स्वातंत्र्या कां श्रनुभव कर सकती है या नहीं, वह श्रात्मोपलब्धि के क्षेत्र में कहाँ तक अपने पैरों पर बढ़ सकती हैं, यह सुखदा की समस्या है, परन्तु 'विवर्त' में प्रेम के बीच में वर्ग आया है और कर्म मुक्ति का प्रयास पुरुष को क्रांतिकारिता की ओर बढ़ा देता है। रेल गिरा कर जितेन वर्गकाद (अमीरी ) के प्रति ही अपने आक्रोश को प्रगट नहीं करता, अपने प्रति अपनी खीज को भी कर्म की वाणी बना देता है । यह कर्म की वारणी प्रेम की असफलता का विस्फोट मात्र हैं। इस प्रकार उपन्यास में दो जीवनमूल्यों को तर्क की डोर में नहीं, भाव की डोर में बाँध दिया गया है। प्रेम और अमीरी (वर्ग) के प्रति विद्रोह हिंसात्मक क्रांति (या श्राक्रामक राष्ट्रीयता) से जोड़ दिये गये हैं। अंत में जितेन पार्टी को भंग करने का आदेश देकर श्रात्मसमर्पण कर देता है, परन्तु यह समर्पण हरिदा के श्रात्मविश्वास और हृदयपरिवर्तन के भीतर से नहीं आता । वह प्रेमजन्य कुठा पर श्रात्मबलिदानी प्रेम की विजय है । अंत में विजय भुवनमोहिनी की होती है । वह जितेम के भीतर से जीवन की विफलता को नष्ट कर देती है, क्योंकि वह जितेन के अवचेतन को विफल कर देती हैं - वह अपने जीवन की श्रात्मप्रवंचना से परिचित हो जाता है। इससे उसका ग्रंथिमोचन होता है । वह नाव लेकर निकल पड़ता है और रात भर रेत पर लोटपोट कर द्वन्दों से मुक्ति पाने में सफल होता है। मोहिनी की प्रडिंगता ने उसके भीतर की गाँठ १६८
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy