________________
उपन्यासकार जनेन्द्र : पुनर्मूल्यांकन परंतु इस प्रकार पात्रों को संकट में डाल कर विवाह पर प्रेम के दबाव का गम्भीर अध्ययन सम्भव था । जैनेन्द्र के ये दो नए उपन्यास 'सुनीता' की पुनरावृत्ति मात्र नहीं हैं, परंतु ढाँचा बहुत कुछ उस जैसा है। यहाँ.पति के मित्र का स्थान पत्नी के मित्र और प्रेमी ने ले लिया है और विफल प्रेम की पीड़ा सह कर क्रांति की ओर बढ़ता हुआ जब थका-हारा वह पूर्व प्रेमिका के यहां संवेदना के लिये पाने का साहस करता है तो नारी का मातृत्व उसके लिये सजग हो उठता है । मातृत्व यानी नारीत्व । वह उसे संरक्षण देती है, परन्तु जानती है कि उससे पूर्व प्रेमी की तृप्ति सम्भव नहीं है । वह न विवाह को तोड़ सकती है, न प्रेम को। या तो वह स्वयं टूट जाती है या उदारमना पति कर्तव्याकर्त्तव्य के घात-प्रतिघात में चकनाचूर हो जाता है । इन उपन्यासों में कथानक की जटिलता बढ़ी है और 'सुखदा' में पत्नी के मुंह पर कथा कहलाई जा कर अधिक प्रामाणिक भी बन गई है। इन्हें हम आत्मकथात्मक उपन्यास कह सकते हैं । फलतः इनमें विश्वसनीयता अधिक है और पाटक कम उलझता है । वक्ता पात्र के मनः संघर्ष अत्यन्त सफाई से उपन्यास में उभरते है और अन्य दो पात्रों के मन की पीड़ा हम कल्पित ही कर सकते हैं । इस प्रकार कथा में अनेकांती दृष्टि नहीं रह जाती और अबझ की रहस्यमयता से हट कर हम स्पष्ट वेदना के देश में आ जाते हैं । सम्भवतः इसीलिये ये उपन्यास अधिक मांसल और प्रभावोत्पादक बन सके हैं।
"सुखदा' की कथा नारी की नारीत्व-साधना की कथा है । पति से स्वतंत्र बन कर पत्नी (विवाहिता नारी) अपना जीवन अपने हाथ में लेना चाहती है, परंतु इस स्वातंत्र्य के पीछे विद्रोह का आक्रोश और संस्कारबद्ध कुठा भी काफ़ी मात्रा में है जो कथा को मनोवैज्ञानिक दीप्ति तो देती है, . परंतु उससे नारी का विवाह सामाजिक न होकर व्यक्तिगत. भी बन जाता है । जो हो, यह स्पष्ट है कि पति की उदारता को अपरिसीम विस्तार देकर भी जैनेन्द्र इस समस्या का समाधान नहीं कर पाये हैं, क्योंकि घर तो टूटता ही है, परंतु इसके साथ हिंसात्मक क्रांतिकारियों की कथा भी है जो पति के बालमित्र हरिदा (हरीश) के आत्मसमर्पण पर समाप्त होती है। यह समर्पण सुखदा के पति (कान्त) के हाथ से ही हुआ है और इसने उसके विद्रोह को विच्छेद तक पहुँचा दिया है । सुखदा को क्षय तक पहुँचा कर लेखक मध्यवित्ती नारी के स्वातंत्र्य को भ्रम ही सिद्ध करता है, परंतु यह स्पष्ट है कि यह उपन्यास लेखक की घरबाहर की समस्या को एक नया मोड़ देता है । प्रेमचन्द की भो एक सुखदा है। ('कर्मभूमि' में) और उनके साहित्य में सुमन ('सेवासदन' में) में भी नारी के विद्रोह और स्वातंत्र्य के चित्र हमें मिलते हैं, परंतु वहाँ यह विद्रोह जीवनदर्शन नहीं बना है. न उसे मनोवैज्ञानिक ग्रंथि ही बनाया गया है । सुमन एक झटके में घर के बाहर प्रा जाती है और अन्त में हार कर संन्यासी पति द्वारा स्थापित सेवासदन (प्राश्रम) में