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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व जाता है और वह दस वर्षों के लिए चुप हो जाते हैं, परन्तु वह एकदम चुप भी नहीं रहते; क्योकि अपनी प्रेम और दाम्पत्य की कहानियों के द्वारा वह समाधानों की खोज में लगे रहते हैं । आत्मा के लिए देह की आसक्ति का त्याग संत-साधना है, परन्तु जैनेन्द्र उसे उसी प्रकार सामाजिक भूमिका पर नर-नारी के अनेक संबन्धों में उतारना चाहते हैं, जिस प्रकार महात्मा गाँधी ने उसे राजनीति के क्षेत्र में लागू किया है । इसे हम भाव की साधना मान सकते हैं, परन्तु इससे यदि जीवन (या जीने) की नई सम्भावनाएं खलती हैं तो हमारा हर्ज ही क्या है ? यदि एक भी मनुष्य इस प्रकार का जीवन जीता है तो शेष मनुष्यों के लिये चुनौती क्यों नहीं बन सकता? जैनेन्द्र के इस कथा-साहित्य की भूमिका यथार्थवादी और मनोवैज्ञानिक नहीं हैं, यद्यपि उसमें दोनों का आभास और सहारा है । वह आदर्श को आकांक्षा के क्षितिज तक ले जाती है और मानव-सम्बंधी (विशेषतः नर-नारी के सम्बंधों को) भीतर से मूलत: बदल देना चाहती है । प्रेम के लिये दांपत्य की यथार्थता ('परख') दाम्पत्य की अपरिसीम निष्ठा ('सुनीता'), उसके टूटने की पीड़ा ('त्यागपत्र') और उसके छले जाने की मर्मान्तक वेदना ('कल्याणी') और दाम्पत्य के टूटने पर नारीत्व और पात्मिक प्रेम पर टिक कर अपने को बचा जाने और भीतर की सार्थकता पाने की कहानियां ही इन उपन्यासों में कल्पित हैं; नहीं, वे पात्रों के साथ जी भी गई हैं। उनकी कथा चमकारक है, परन्तु व्यथा कथा से भी अधिक अद्भत है और वह हमें भीतर तक भ.कझोर देती है । यथार्थ और मनोविज्ञान के भ्रम में हमें उलझा कर जैनेन्द्र का दार्शनिक हम पर हँसता नहीं, तो हमारी बुद्धि की हारी हौड़ पर मुस्कराता तो अवश्य है। आलोचक जरा सावधान रहें।
दस वर्षों के बाद जब जनेन्द्र "सुखदा", "विवर्त" और "व्यतीत" के साथ फिर एक बार उपन्यास की ओर मुड़े तो घर की सुदृढ़ता के प्रति उनकी आस्था चलायमान हो उठी है । रवीन्द्र के 'घरे-बाहरे' और 'चार अध्याय' की भूमिकाओं ने उन्हें जो सूत्र दिये थे उनकी सारी सम्भावनाएँ अभी तक समाप्त नहीं हुई थीं। 'कल्याणी' में वह मि० पाल के रूप में एक क्रांतिकारी को लाये ही थे, परंतु उससे कल्याणी का विवाहपूर्व का प्रेम-संबंध नहीं था। पत्नी के पूर्व प्रेमी को दाम्पत्य के बीच में लाकर पतिपत्नी की मनःस्थितियों का अध्ययन कथा और विचार की नई-नई सम्भावनाएँ विकसित कर सकता था । पत्नी को तोड़ कर ('सुखदा') या उदारमना पति को पीछे हटा कर ('विवत्तं') लेखक दाम्पत्य को उदार बनाने का संदेश दे सकता है, जिससे घर भीतर से बड़ा बन कर सारे बाहर को सिमेट सके, परन्तु यह उदारता चेतन मन की साधना हो सकती थी, अवचेतन मन को उससे सहारा नहीं मिल सकता था। इसीलिये पति या पत्नी में से किसी एक को टूटने की वेदना सहनी प्रावश्यक बात थी,