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उपन्यासकार जैनेन्द्र : पुनर्मूल्यांकन
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पाटना उसका काम नहीं है । कल्याणी के पक्ष को लेखक ने उपन्यास के बारहवें अध्याय ( पृष्ठ ६५-६७ ) में मुखरित किया है । कल्याणी के इन लेखबद्ध विचारों में उनके जीवन का सत्य उभरा है परन्तु क्या उनका जीवन आत्मप्रवंचना की भूमिका पर भी नहीं जिया गया है । श्रात्मतुष्टि और आत्मप्रवंचना में कितना थोड़ा अंतर है ? जहाँ ये दोनों ही कल्याणी को लेकर सत्य हैं, वहाँ उनकी ग्रात्मप्रवंचना से पति खण्डित होता है । व्यक्ति पति तो चारित्रिक दृष्टि से ही खण्डित है, यहाँ हमास तात्पर्य पति नाम की संस्था से है । जैनेन्द्र के उपन्यासों में तटस्थ कलाकार विभिन्न पहलुओं को उभारकर अलग हो जाता है । प्रेमचंद की तरह उनका साहित्य कर्म का साहित्य ( लिटरेचर एनगेजी) नहीं है, वह भाव का साहित्य है और उन्होंने भाव को ज्ञान की तराजू पर तोलकर ज्ञान की अनेकांतता दिखलाई है ( सार्थकता भी ) । जीना ही हमारी सार्थकता है, परन्तु वह किसी या किन्हीं के लिए चुनौती सकता है । 'कल्याणी' उपन्यास में जीना कल्याणी का है और इस जीने की दो नैतिक व्याख्याएं हैं, – एक वकील साहब की दूसरी उनके मित्र प्रो० श्रीधर की । चौदहवें और सोलहवें अध्याय में लेखक ने कल्याणी को वकील साहब के दृष्टिकोण से देखा है : " सोच होता था कि अगर उस नारी को नियति ने कुछ सरल और समतल परिस्थिति जीवन की दी होती तो क्या बुराई है ।" इत्यादि । ( पृष्ठ ८१-८५ ) ज्ञान की ऊँचाई से यह तर्क-वितर्क यहाँ प्रस्तुत हैं, परन्तु ज्ञान से जीने का काम नहीं चलता । जीना एक भी हो सकता है और दो भी । तब प्रश्न यह होता है कि कल्याणी का भीतर-बाहर एक है । क्या वे जानती हैं कि वे श्रात्मप्रवंचिता हैं ? लेखक का उत्तर है, — नहीं, वे नहीं जानतीं, परन्तु भीतर-बाहर तो दो शब्द हैं, वे दो नहीं हैं । मनोविश्लेषक जहाँ जीने को भीतर-बाहर के विरोधों में बांध कर चलता है और अपने तर्क से अंतराल को भरता है, वहाँ जैनेन्द्र दर्शन की भूमिका से विरोध को द्वन्द के रूप में ही ग्रहण करते हैं । इस संबंध में जैनेन्द्र के अपने शब्द महत्वपूर्ण हैं ( पृष्ठ ६५-६७ ) 'त्यागपत्र' में लेखक ने मृणाल के जीवन को भतीजे सर एम० दयाल की आँखों से देखा हैं, परन्तु 'कल्याणी' में वकील साहब और श्रीधर के रूप में दो द्रष्टा हैं और दोनों के दृष्टिकोण भिन्न हैं, वकील साहब का दृष्टिकोण ही उपन्यास में प्रसारित है और उसके प्रदर्शवाद को श्रीधर यथार्थवादी दृष्टिकोण से संतुलित बनाया गया है। इस प्रकार कल्याणी के जीने को हम यथार्थ और आदर्श तथा संवेदना और प्रवाद दोनों धरातलों पर देख सकते हैं । यह नहीं कहा जा सकता कि इससे हम कल्याणी के मर्म तक पहुँचे हैं या उससे दूर पड़ गये हैं ।
“परख” से “कल्याणी” तक जैनेन्द्र के उपन्यास लेखन का एक चक्र पूरा हो