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________________ १६४ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व चली जाती है ( या भेज दी जाती है ) । डाक्टर असरानी के रूप में लेखक ने महाजनी समाज में उच्च शिक्षिता नारी के सामग्रिक शोषण का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह पतित होने के साथ भयावह भी है । जहाँ मूल में ही कुत्सा है, वहाँ दाम्पत्य कब है ? क्या 'कल्याणी' पति की संस्था पर भी तीव्र व्यंग नहीं है ? परिवार ही नहीं टूटा है, दम्पति भी टूटे हैं, क्योंकि बाहर से प्रेम न आकर विछोह की प्रांच बीच में डाल दी है, परन्तु जहाँ दाम्पत्य पत्नी के शोषण पर खड़ा है, वहाँ बाहर से उसके तोड़ने की आवश्यकता भी नहीं, परन्तु कल्याणी यह सब कैसे सहती ? कदाचित् इसलिये जैनेन्द्र ने उपन्यास के अंत में 'प्रीमियर' के प्रेम का नया सूत्र चलाकर इस उपन्यास को पूर्वरागी भूमिका दे डाली है। पति उसे जानकर "प्रीमियरप्रेमी" से आर्थिक लाभ उठाना चाहता है और यह अवसरवादिता नारी से तन बिकवाने से भी बड़ी विभीषिका है, परन्तु इस मोड़ के बिना भी कहानी कम मार्मिक नहीं थी। कहानी में मिस्टर देवलालीकर और कल्याणी का उनके संबन्ध में स्वप्नाभास कल्याणी की मनोस्थिति का सूचक भले हो, इससे कथा की शास्त्रीयता ही बढ़ी है, वेदना नहीं । इसी प्रकार पॉल में हरिप्रसन्न और सुखदा तथा 'विवर्त' के क्रांतिकारियों की पुनरावृत्ति है । ऐसा लगता है कि कृति में मार्ग खोजने का प्रयत्न करते हए जैनेन्द्र पूर्वकृति के समाधान पर पहुँचे हैं और अंत में 'प्रीमियर' उन्हें हाथ लग गये हैं। इससे देवलालीकर और पॉल कथा तथा चरित्र के विकास की दृष्टि से व्यर्थ मा हो गये हैं । इससे रचना का कला-सौष्ठव अवश्य संकट में पड़ा है और वह उलझ गई है । जो हो, यह स्पष्ट है कि 'कल्याणी' में जैनेन्द्र घर के भीतर की तोड़फोड़ को पति और प्रेमी के दो केन्द्रों में बांटकर उत्पीड़न की विभीषिका और सहन की पराकाष्ठा के दो अंतिम छोरों पर जा टिके हैं । एक तरह से यह उनकी सबसे अधिक प्रतिवादी रचना कही जा सकती है। 'त्यागपत्र' की तरह 'कल्याणी' भी समूचा व्यंग है । यह व्यंग मृणाल और कल्याणी के हार कर गल जाने में है । भीतर के महान् प्रादर्श भी उन्हें बचा नहीं सके, परन्तु वे उन पर टिकी रहीं। यह आदर्शों के प्रति जैनेन्द्र का पक्षपात कहा गया है और उन्हें अतिवादी आदर्शवादों का नक माना गया है, परन्तु यह मनुष्य की लाचारी है कि वह गल कर ही आदर्श को सार्थक बना सकता है। उसकी अपनी सार्थकता गलने में है, परन्तु यह गलना औरों की आँखें खोल देता है । व्यक्ति के लिए जो आदर्श बने, वह समाज के लिए अभिशाप भी हो सकता है, चुनौती भी बन सकता है । गाँधी और निराला का जीवन प्रमाण है। उपन्यासकार दोनों पक्षों को सामने रख कर अलग हो जाता है, क्योंकि उसका काम व्यक्ति और समाज के बीच की खाई को दिखाना भर है, उसे
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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