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________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व www N wwww " ठहराता है और मृणाल को बलिदानी संत भी बना देता है, परन्तु नियतिवाद का कोई भी समाधान उसके पास नहीं है । यह गहरी गांठ है और उसका संबंध मनुष्य के कर्मस्वातंत्र्य से है । जैनेन्द्र ने इस प्रश्न को समाधृत न कर अपनी दार्शनिकता की रक्षा ही नहीं की है, उसकी चेतनता को पुष्ट भी किया है। १६२ ست यह स्पष्ट है कि ‘त्यागपत्र' को लेकर समीक्षकों को कठिनाई हुई है, क्योंकि उन्होंने मृणाल की कथा को लिया है, उसकी व्यथा को नहीं लिया । जैनेन्द्र के व्यापक सामाजिक और दार्शनिक सूत्रों को वे अनदेखा कर गये अथवा उन्हें अप्रासंगिक मान बैठे, परन्तु जैनेन्द्र पहले विचारक हैं, फिर कथाकार । कथा उनके विचार को खोलती है । वह उदाहरण है, मात्र उदाहरण नहीं है और भी कुछ है, क्योंकि उसकी पीड़ा कुछ दुर्वह भी दे जाती है । 'सुनीता' के दाम्पत्यनिष्ठं पातिव्रत्य की तेजोमयता के बाद जैनेन्द्र एकदम विरोधी ध्रुव पर चले जाते हैं, जहाँ प्रथित ढंग के पातिव्रत्य का कोई अर्थ नहीं है । यदि 'सुनीता' की नग्नता क्षम्य है और उससे उसका सतीत्व या पातिव्रत्य धुंधला नहीं होता, निखरता ही है तो भृणाल के जड़ शरीर (या शरीर को शरीर मान कर ) वेचने में वह क्यों लांछित होगी । देह और आत्मा का नैसर्गिक द्वन्द्व जैनेन्द्र अपनी कथानों में लेकर चले हैं और उन्होंने देह को हरा कर बराबर आत्मा को जिताया है । यह उन्हीं की चेतना नहीं, पारंपरिक त्रासकीय योजना भी है । मृणाल के पास उसकी देह के सिवा और क्या है ? यदि वह उसे अस्त्र की तरह - योग में लाती है या उसे ढ़ाल बनाकर अपनी आत्मा को बचा जाती है तो समाधान चाहे अतिवादी हो, उसकी संभावना तो बनी ही रहेगी । मृणाल ने सामान्य नारी की भौति प्रेयसीत्व (चारुत्व) में अपनी चरितार्थता पानी चाही, परन्तु नहीं पा सकी । समाज और पति बीच में आ गये और अंत में तिरस्कृत होकर उसने नारीत्व (ममता, करुणा ) में अपनी सार्थकता निबाही । जो खोया, उससे अधिक पा लिया । इससे समाज और पति का दोष कम नहीं हो जाता, परन्तु हम क्यों यह चाहें कि लेखक मृणाल की उपलब्धियों को महत्त्वपूर्ण नहीं माने और समाज से ही टकराता रहे । प्रागे बढ़ कर वह यह भी मान लेता है कि इसमें नियति का हाथ था या इसे हम ईश्वर की लीला मान लें, परन्तु इससे समाज दोष से मुक्त नहीं होता, क्योंकि व्यक्ति के बलिदान की महार्घता कम नहीं होती । स्थूल कथा से श्रागे बढ़ कर जैनेन्द्र याद सूक्ष्म चिन्तन और गंभीर व्यथा की भूमिका पर उपन्यास का निर्माण करते हैं और अपनी भाषा-शैली की सारी क्षमता से उसे प्रश्नचिह्न की तरह 'तत्ता' बना देते हैं तो इसके लिये क्या वे हमारे धन्यवाद के पात्र नहीं हैं ? ' 'कल्याणी' (१९३६) जैनेन्द्र के उपन्यास लेखन की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है और इसकी रचना का महत्त्व इसलिए और भी अधिक है कि इसके बाद जैनेन्द्र मौन
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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