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उपन्यासकार जनेन्द्र : पुलल्यांकन
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सर.एम० दयाल की दष्टि है । कम-से-कम सामाजिक चिन्तन के क्षेत्र में जैनेन्द्र अग्रगामी ही हैं, वे चाहे समान तोड़क नहीं हों।
परन्तु अपने समाजदर्शन को लेखक ने शाश्वत जीवन-दर्शन में पचा डाला है। उसको लेकर हम क्या करें ? क्या उसमें जैनेन्द्र कहीं भी प्रगतिशील हैं ? यह निमसिमाद ? पीड़ावाद ? बलिदानवाद ? परन्तु ये .मूल प्रश्न हैं और प्रत्येक युग में उठाये गये हैं। इनका उत्तर हमें कभी भी मिला है जो हम जैनेन्द्र से प्राशा करें कि वह हमें उत्तर-देंगे ? 'त्यागपत्र' के चौथे अध्याय में जैनेन्द्र ने. समाज को दोषी न ठहरा कर दर्द को अपने ऊपर प्रोढ़ लेने की बात कही है और उसी में सत्य, ईश्वर का निवास माता है। यह अध्यात्मवादी या गांधीवादी भूमिका पर उनके चिन्तन का प्रसार है । माना, यह दृष्टि सबकी दृष्टि नहीं हो सकती या अधूरी दृष्टि ही हो सकती है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि यह भी एक दृष्टि होगी । देखिये, पृष्ठ :४५-४८ । इस व्यापक और मूलगत जीवन-दृष्टि ने त्यागपत्र' की कथा को सामाजिक भूमिका से ऊपर उठा कर आत्मिक (या दूसरे ध्र व से. शाश्कत) बना दिया है । एक ओर मणाल का व्यक्तित्व बलिदानी-बन कर प्रणम्य बन जाता है और दूसरी ओर उसकी जीवन-गाथा मनुष्य एवं नियति के संघर्ष की कहानी बनकर त्रासकीय ऊँचाई प्राप्त कर लेती है। प्रश्न यह होता है कि जैनेन्द्र कोई एक दृष्टिकोण क्यों नहीं अपनाते और हमारी पकड़ में क्यों नहीं पा जाते, परन्तु यदि वह जीवन की अनेकांतता (या अबूझता) ही हमें देना चाहें तो दोषी क्यों माने जायें ? लेखक क्यों सर्वदृष्टा बने, क्यों ईश्वरत्व प्रोटो. क्यों पाप-पुण्य पर क़तवा दे ? वह जीवन देता है, आप पाठक) संभावनाओं पर सोचें-विचार । कलाकार की महता प्रश्न उभारने में है, समाधान में नहीं है ? एक ही रचना यदि अनेक प्रश्नों का उत्तर हो, या उन्हें स्पर्श करे तो बुराई ही क्या है ? व्यक्ति, समाज, ईश्वरीयत्ता उत्तरोत्तर अधिक व्यापक भूमिकाए हैं, परन्तु जो व्यक्ति को छूता है वह अनिवार्यतः समाज को छता है और समाज को छूकर ईश्वर, नियति तथा पाप-पुण्य के मूलभूत प्रश्नों से उलभता है । जैनेन्द्र की यह कृति एक साथ तीनों धरातलों पर चलती है। व्यक्ति की भूमिका पर मृणाल कुठित प्रेम से लेकर पातिप्रत्य और अंत में संतत्व की सीमा तक जाती है और उसकी बलिदानी स्वरूप प्रणम्य होकर भी अबूझ वन जाला है । समाज की भूमिका पर वह व्यक्तित्व के दुर्बल, परन्तु प्राणमय विद्रोह की सूचना देती है और उसकी पीड़ा सामाजिक संस्थानों की दुहता
और कठोरता को व्यंग के ' काश में ला खड़ा करती है । ईश्वरीयता की भूमिका पर, मृणाल की जीवन-लीला नियति का खिलौना बन जाती है और उसकी त्रासकीय गरिमा हमारी आस्तिकता को उभारती है (भकभोर भी सकती है ! ) । इस प्रकार तीन भूमिकाओं पर समाधान की तीन दिशायें हैं । त्यागपत समाज को अपराधनीय