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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व है, जब तक हम अराजकतावादी न बन जाएं और समाज की अनिवार्यता को अस्वीकार ही न कर दें। नारी के विद्रोह को समाज पर खर्च न कर जनेन्द्र उसे गलने देते हैं और इस प्रकार समाज को टूटने से बचा जाते हैं, परन्तु यहाँ लेखक की दार्शनिकता और वस्तुस्थिति का उसे सहारा है । नियतिवाद और समाज का प्रस्तुत ढांचा जो होने देता है, वही तो होता है । लेखक अनेक सम्भावनाओं में से वही लेगा जो शाश्वत जीवन-बोध और सामयिक स्थिति पर लागू हो सकेगी। इसके लिए हम उसे क्यों दोष दें ? इसे हम लेखक का आदर्शवाद कह कर भी छुट्टी पा सकते हैं, परन्तु यह मानना होगा कि जैनेन्द्र ने फिर भी समाज को बचाया नहीं है, उसे खपाया ही है। सर एम० दयाल के त्यागपत्र में आलोचकों के प्रति उसका उत्तर अन्तनिहित है। तात्कालिक प्रश्न समाज की सीमाओं को लेकर है और उस पर समाज की कहानी असंभव नहीं उतरती और शाश्वत प्रश्न नियतिवाद या ईश्वर को लेकर है और उस पर लेखक का दृष्टिकोण भारतीय-संस्कृति से पुष्ट है । इन दोनों सीमानों के भीतर ही 'त्यागपत्र' आलोच्य बन सकेगा और इन्हें ध्यान में रखकर ही हम उसके प्रति न्याय कर सकेंगे।
जैनेन्द्र की दृष्टि मानव-जीवन की अबूझता और अगाघता पर अटकी है और उन्होंने उपन्यास के अंतिम अध्याय में प्रतीकवादी ढंग से मृणाल के मनस्तत्व का बड़ा काव्यात्मक विवेचन प्रस्तुत कर दिया है । "वह समंदर है। अपनी नन्हीं काग़ज की डोंगी लिये हम भी उसके किनारे खेने के लिये प्रा उतरे हैं । पर किनारे पर ही कुशल है, आगे थाह नहीं है । हिम्मत वाले आगे भी बढ़ते हैं। बहुत डूबते हैं, कुछ तैरते भी दीखते हैं । पर अधिकतर तो किनारे पर साँस लेने भर जगह के लिए छीन-झपट और हाय-हाय मचाने में लगे हैं । नहीं तो वे और करें भी तो क्या ? लड़ते-लड़ते अपने छोटे से वृत्त की परिधि में घूम लेते हैं । सागर तीनों ओर कैसे उल्लास से लहरा रहा है । पर वह लहराता रहे, हमें अनेक धंधे हैं, उधर करने को आंख खाली नहीं है।" आदि, आदि। (त्यागपत्र, पृ० ८६-६०) इस अवतरण से सर एम० दयाल की मनोवृत्ति पर प्रकाश पड़ता है और चूकि वे मध्यवर्ती सफल मनुष्य के प्रतिनिधि पात्र हैं, अतः हम इसे लेखक की मान्यता के रूप में नहीं, मध्यवर्गीय दुर्बल चेतना के प्रति लेखक के व्यंग के रूप में ही ले सकते हैं । इस अवतरण के आगे के अंश में लेखक ने अगम जल में आगे बढ़ती, डूबती-उतराती मृणाल और समाज की मानमर्यादा पर खड़े प्रतिष्ठित उसके भतीजे सर एम० दयाल के बीच में जो संवाद चलाया है, उससे मृणाल ही नहीं, लेखक के भी दृष्टिकोण पर प्रकाश पड़ता है। लेखक को 'जो-है-सो' वादी अथवा यथास्थितिवादी माना गया है । परन्तु यह स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण भ्रामक है, क्योंकि यह लेखक की दृष्टि नहीं, मध्यवर्गीय मनश्चेतना के प्रतीक