________________
उपन्यासकार जैनेन्द्र : पुनर्मूल्यांकन
१५६
है ? क्या यह अबला नारी का विद्रोह है, या समाज के प्रति उसकी चुनौती है या बोधिसत्त्व बलिदान ? मृणाल के चरित्र को फ्रायडीय मनोविज्ञान के सूत्रों में बाँधने का प्रयत्न हुआ है, परंतु प्रारम्भिक प्रसंगों से आगे बढ़ने पर उसका रंग उतर जाता है। और समाज की ग्रांच में तपती हुई पति-परित्यक्ता नारी मृणाल रह जाती है । वह न कट्टो है, न सुनीता है, न जाह्नवी । वह समाज के पंक में डूबी हुई मृणाल है, परंतु इस मृणाल पर नारीत्व का अलिप्त पंकज भी खिला है । समीक्षकों ने उसे देखना नहीं चाहा तो इससे क्या ? एक ओर प्रेमचन्द की 'निर्मला' (१९२३) जो समाज की वेदी पर तिल-तिल कट कर बलि हो जाती है और करुणा की प्रतिमूर्ति बन जाती है । उसकी व्यथा निश्चय ही त्रासकीय है, परंतु मृणाल उससे कम नहीं गली है, फिर भी वह त्रासकीय नहीं बन सकी, चुनौती ही बन सकी । उसकी चुनौती अहिंसात्मक या बलिदानी है । उसमें आक्रोश नहीं, लाचारी की कथा है | लाचारी समाज को बनाए रखने की है, क्योकि मृणाल विद्रोहिणी नहीं बनना चाहती और समाज की अनिवार्यता जानती है, परंतु उसका अज्ञान सहना निर्मला के अज्ञान सहने से भिन्न है । इससे संपूर्ण उपन्यास सामाजिक बन जाता है । जो टूटा रहा है, उसे बचाने का मृणाल का प्रयत्न व्यर्थ ही नहीं, हास्यास्पद भी है । परिस्थिति के इस व्यंग ने ही इस उपन्यास को चुनौती बना दिया है । प्राज भी हम उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं ।
दयाल के चुकी है,
मान्यता पर श्राघात त्यागपत्र में समाज हारा है, मृणाल जीती है परंतु हार कर भी समाज बदला नहीं है,
'त्यागपत्र' की नायिका मृणाल विवाह से टूट कर घर के बाहर खड़ी हो गई है, परन्तु समाज पति-परित्यक्ता नारी को कैसे स्वीकार करे । वह उसे पापिन मानता है और उपन्यासकार को मृणाल का पक्ष लेकर समाज की इस करना पड़ता है । सर एम० परंतु वह कब -- जब वह मर सर एम० दयाल को ही उससे बाहर जा कर हरिद्वार में विरक्त जीवन बिताना पड़ रहा है । समाज और मृणाल के बीच में सर एम० दयाल किसी एक को निश्चित रूप से दोषी नहीं ठहरा सके हैं। क्योंकि वे स्वयं समाज भीरु हैं । 'त्यागपत्र' का सारा द्वन्द्व इन पंक्तियों में है जिनमें विरक्त एम० दयाल कहते हैं : ' विवाह की ग्रंथि दो के बीच की ग्रंथि नहीं है, वह समाज के बीच की भी है । चाहने से ही वह क्या टूटती है ? विवाह भावुकता का प्रश्न नहीं, व्यवस्था का प्रश्न है । वह प्रश्न क्या यों टाले टल सकता है ? वह गांठ है जो बँधी कि खुल नहीं सकती, टूटे तो टूट भले ही जाये, परन्तु टूटना कब किसका श्रेयस्कर है ?" ( त्यागपत्र, पृष्ठ ३० )
परन्तु प्रश्न यह है कि व्यक्ति क्यों टूटे और समाज क्यों बना रहे । इस प्रश्न का कोई समाधान जैनेन्द्र नहीं देते, क्योंकि कोई समाधान उस समय तक सम्भव नहीं