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________________ १५८ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व वहाँ द्वन्द्व मनोवैज्ञानिक है, सैद्धान्तिक नहीं,-न उसके लिए पति को घर से गायब होकर मार्ग निकालना पड़ता है । अन्तर भी है। रवीन्द्र की रचना में घर टूटा है, परन्तु जैनेन्द्र में वह बना ही नहीं रहा है, और भी सुदृढ़ हो गया है । परन्तु इसका क्या भरोसा कि फिर उस पर अाक्रमण नहीं होगा और फिर टूटने की समस्या उठ नहीं खड़ी होगी ? 'सुखदा' और 'विवर्त' (१९४६) में जैनेन्द्र ने इस समस्या को फिर लिया है और घर को तोड़ डाला है । एक में पत्नी टूटी है, दूसरे में पति । इस प्रकार ये तीनों उपन्यास एक ही प्रश्न के तीन समाधान प्रस्तुत करते हैं ? परन्तु क्या पुरुष ही घर पर आक्रमण कर सकता है, स्त्री नहीं ? जैनेन्द्र जानते हैं कि यह दूसरी समस्या भी आज के खुले हुए शिक्षित समाज में असम्भव नहीं है । "इनाम" और "प्रमिला" कहानियों में उन्होंने अपने इन तीन उपन्यासों की समस्या को नई भूमिका देनी चाही है । समाधान उन्हें नहीं मिले हैं, परन्तु चित्रण वहाँ स्पष्ट है । यह स्पष्ट है कि घर और बाहर की नए समाज की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण समस्या को जैनेन्द्र कई धरातलों पर सामने लाते हैं। कालक्रम से "सुनीता' के बाद "त्यागपत्र' (१९३५) का प्रकाशन हुआ । इसमें टूटे हुए घर की समस्या है । घर-बाहर की कोई समस्या नहीं है, क्योंकि घर एक तरह से बना ही नहीं है या बनते-बनते रह गया है । वास्तव में 'त्यागपत्र' समस्यामूलक नहीं है, क्योंकि जो समस्या थी, वह मृणाल की मृत्यु से (बलिदान से) हल हो गई है । रह गई है व्यथा, जो भतीजे चीफ़ जज सर एम० दयाल से त्यागपत्र दिलवाती है। इसी बुग्रा मृणाल ने भोगा और चली गई, परन्तु भोगने से क्या कोई चक जाता है ? इसीलिए मृणाल की कथा शेष होकर भी निःशेष नहीं हुई है । 'त्यागपत्र' ने सारे हिन्दू समाज को ही अदालत में खड़ा कर दिया है : समस्या यदि है तो गहरी है अर्थात् पाप-पुण्य की है कि बुआ (मृणाल) पापी है या नहीं। कथाकार ने उतनी ही कथा दी है, जितनी भतीजे की आँखों ने देखी, या उसने अनुमानित की, शेष मृणाल जाने या भगवान्, क्योंकि इस उपन्यास में कथाकार सर्वदृष्टा का चोला उतार कर कथा के उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है । जहाँ तक सर एम० दयाल का सम्बन्ध है, उपन्यास की कहानी उनकी आत्मप्रवंचना की कहानी है, परन्तु उनकी प्रात्मप्रवंचना उनकी कथा बन सकती है, वह समाज की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती । 'त्यागपत्र' शीर्षक ने मृणाल को पीछे डाल दिया है, परन्तु ध्येय वही है। प्रश्न यह है कि दोषी कौन है-मृणाल ? या दयाल के माता-पिता ? या मृणाल का पति ? या समाज ? क्यों मृणाल गहरे गर्त में बराबर उतरती जाती
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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