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________________ उपन्यासकार जैनेन्द्र : पुनर्मूल्यांकन 'परख' में इस समस्या का क्या हल है ? सत्य समाज से समझौता कर लेता है, प्रेम को छोड़ कर वह विवाह पर टिक जाता है और गरिमा उसकी हो जाती है। वह समाज का संभ्रांत और सफल सदस्य बनता है । उधर कट्टो और बिहारी विवाह के स्थान पर अतीशय प्रेम, प्लेटॉनिक लव-का मार्ग चुनते हैं। यों समाज भी बना रहता है और प्रेम की समस्या भी सुलझ जाती है, क्योंकि समाज के लिये उसमें कोई द्विधा नहीं है कि उसको स्वीकार कर लिया गया और चुपचाप उससे बाहर चला गया । कसौटी है समाज और उसकी परख में सत्यधन क्या पूरे उतरे ? परन्तु क्या कसौटी प्रेम भी नहीं है और उसमें कट्टो-बिहारी ही पूरे-पूरे नहीं उतरे ? अपनाअपना दृष्टिकोण । परन्तु लेखक आदर्शवादी है और कट्टो-बिहारी के साथ है, सत्यघन के साथ नहीं । सत्यघन का हृदय कट्टो के ही साथ है और उसी के नाते (और आग्रह पर) गरिमा का पति वह बना रहेगा, परन्तु समाज का सफल व्यक्ति क्या अपने प्रति ईमानदार रह सकता है ? क्या उसने समाज के साथ समझौता नहीं किया है ? प्रश्न मूल्यों का है और जिन मूल्यों को लेकर सत्यघन चलना चाहता है, वे उसी के द्वारा खण्डित हो गये हैं । यह स्पष्ट है कि जैनेन्द्र केवल कथा ही नहीं कहना चाहते । वे सांस्कृतिक और शाश्वत जीवन-मूल्य भी उभारना चाहते हैं । उनकी कथा का अस्तित्व सिद्धांत के भीतर से है या यों कहें कि सिद्धान्त ही उसकी चरितार्थता है । हम क्या चुनें ?-तात्कालिक या शाश्वत ? उत्तर जैनेन्द्र के पास नहीं है, क्योंकि हम अपनी प्रकृति और क्षमता के अनुसार ही चुनेंगे, परन्तु सत्यघन और बिहारी-कट्टो के रूप में दोनों विरोधी दिशायें हमारे सामने हैं । प्रेम जीता,क्योंकि वह समाज के नियंत्रण से बाहर निकल गया, परन्तु क्या कट्टो-बिहारी की इस परिणति में समाज के कर्म-कवच की धज्जियां नहीं उड़ाई गई हैं। जैनेन्द्र की इस रचना के एकदम प्रादर्शवादी भूमिका पर लेकर हमने उसकी व्यंग की मुद्रा को अनदेखा ही कर दिया है। परन्तु क्या व्यंग उन्हें भी स्पष्ट था ? अपनी दूसरी रचना 'सुनीता” (१९३२) में जैनेन्द्र प्रेम और विवाह के इस द्वन्द्व को और भी गहरा कर देते हैं, क्योंकि प्रेम यहाँ पूर्वरागी नहीं है, विवाह में उसकी परिणति नहीं होगी। वह विवाह (दाम्पत्य जीवन) के प्रति चुनौती के रूप में सामने आया है । जैनेन्द्र ने सुनीता के विरस दाम्पत्य जीवन की तीव्रता को उभार कर इस चुनौती को उपयुक्त भूमिका भी दे दी है। प्रश्न यह है कि घर-बाहर में कौन जीतता है । प्रेयसीत्व की शोभा से अलंकृत नारी घर में रह जाती है या नारीत्व की दीपशिखा वन कर घर से बाहर समाज में या जाती है ? घर टूटता है या घर की दीवारों से टकरा कर "बाहर" बाहर ही रह जाता है । हरिप्रसन्न यहाँ बाहर का प्रतीक है । यह समस्या नई नहीं है । रवि बाबू के “घरे-बाहिरे" में ही उसे उभारा गया है, परन्तु
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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