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________________ १५६ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व होगे । फिर यह भी तो संभव है कि प्रेम घर के बाहर से भीतर ग्राकर विवाह पर चोट करे और घरौंदा ही टूट जाये । कौन टूटेगा, पति या पत्नी ? या दाम्पत्य की गाँठ इतनी दृढ़ रहेगी कि बाहर से आने वाला प्रेम पलायन कर जायेगा ? परन्तु यदि वह प्रेम दोतरफा है तो कुछ-न-कुछ संकट तो उपस्थित ही होगा । इस प्रकार प्रेम और विवाह की समस्या जैनेन्द्र के उपन्यासों की प्रमुख समस्या बन जाती है। इस तरह चलकर विवाह के माध्यम से समाज आता है और समाज हमें यानी कालबद्ध मनश्चेतना को चुका कर किसी और भी सूक्ष्म और सशक्त मूलाधार की और इंगित कर देता है – नियति, या ईश्वर, या क्या ? जैनेन्द्र अपनी रचनाओं की परिणति इसी नियतिवाद या ईश्वरवाद में करते हैं और स्पष्ट ही यह समस्या का कोई समाधान नहीं है । उससे न व्यक्ति सार्थक होता है, न समाज; परन्तु समभौ और समाधान हमें मिल जाते हैं । इस 'ईश्वर' को बीच में लाकर औपन्यासिक कला की दृष्टि से जैनेन्द्र अबूझ बन गये हैं । उन्होंने बुद्धि को हरा दिया है और मनोविज्ञान को पीछे डाल दिया है, परन्तु विचारक कथाकार के लिए कोई तो आधार चाहिये, जिस पर टिक कर वह घटनाओं और पात्रों को संभाल सके । जैनेन्द्र की टेक है नियति या परमात्मा । दोनों एक हैं, क्योंकि दोनों अबूझ और अंतिम हैं और उन पर मनुष्य का कोई बस नहीं चलता । 'परख' में यह परमात्मा पहली बार आया है । उसे हम समझें | जैनेन्द्र के शब्दों में "लेकिन दिन एक-से नहीं रहते । काम चला जाता है और चीज़ों को नई-पुरानी कर जाता है । नई का काम है पुरानी हो जाये । वह मरी, फिर शायद किसी विशेष पद्धति से नई हो जाती है । वह विशेष विधि क्या है, सो हम क्या जानें। जिसे विद्वानों ने खोजा, मर गये पर नहीं पा गये, खोज रहे हैं, मर रहे हैं, पर नहीं पा रहे हैं - उसी को हम क्या जानें | हमसे बहुत ज्यादा मेहनत नहीं होती, हम खोजने खोजने में ही चोर पाने के लालच में खोने खोने में ही हमसे जिंदगी नहीं बितायी जायेगी। हमने तो एक शब्द में कह दिया 'परमात्मा' और मानो हमने पा लिया । पर लोग हैं, खोजने से थकना ही नहीं चाहते । कहते हैं, हम पाकर ही छोड़ेंगे । हम उनको धन्यवाद देते हैं, हाथ जोड़ते हैं, बड़ी श्रद्धा से 'नास्तिक' कहते हैं, भाई खूब खोजो, जितना बने उतना । पर बिदा से एक दिन पहले समाधान नहीं मिल पाये, तो हमारे साथ हो जाना और कहना 'परमात्मा' मिल गया तो हम इसका जिम्मा लेते हैं कि जितने कोष मिलेंगे, हम ज़बरदस्ती उनमें से 'परमात्मा' मिटा डालेंगे ।" 'परख', वही, पृ० १२७-२८ । इन अवतरणों से जैनेन्द्र के चिन्तन की दिशाएं स्पष्ट हो जाती हैं । उनके लिए कथा की सार्थकता यही है कि वह उन्हें प्रेम और विवाह के सम्बन्ध में समाधान दे और ईश्वर को भी अपने समाधान में खपा डाले ।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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