________________
उपन्यासकार जैनेन्द्र : पुनर्मूल्यांकन
१५५ नहीं है कि जनेन्द्र किसी के मानदण्ड पर चलें । उनका मानदण्ड उनके साहित्य के भातर ही मिलेगा, परन्तु वह विशुद्धता और एकांगिता का मानदण्ड नहीं हो सकता । नया उपन्यास बुद्धि, धर्म, समाज, चारित्र्य, नीति सब पर प्रश्नचिह्न लगाता चला गया है । उसमें करने की लाचारी नहीं उभरी है, होने की मजबूरी सामने आई है। वह हेमलेटी है या फाउस्टी । कर्तव्य-प्रकर्त्तव्य के द्वन्द्व ने उसे दुर्बोध बना दिया है; क्योंकि वह जीवन को कुरुक्षेत्र के रूप में नहीं, धर्म-क्षेत्र के रूप में लेना चाहता है । हम यह क्यों देखते हैं कि पात्र क्या कर रहे हैं ? हम यह क्यों नहीं देखें कि वह क्या हो रहे हैं ? व्यथा के भीतर से होने की पीड़ा उभारना ही क्या कलाकार का धर्म नहीं है ?
जैनेन्द्र के पहले उपन्यास 'परख' (१९२६) में ही हमें उनके विचारक रूप का आभास हो जाता है । यद्यपि कथाप्रवाह और नई भाषा-शैली के चमत्कार में हम उन महत्वपूर्ण प्रश्नों को शीघ्र ही भूल जाते हैं जो पृष्ठभूमि में झांक रहे हैं । पहली बात तो यह है कि जैनेन्द्र जीवन के केन्द्र में स्त्री को रख देते हैं और यहाँ तक कह जाते हैं कि धर्म स्त्री पर टिका है, सभ्यता स्त्री पर निर्भर है । उनके शब्द हैं : “पुरुष बनाता है, विधाता बिगाड़ देता है-अंग्रेजी की एक कहावत है। संशोधन कर यह भी कहा जा सकता है, पुरुष बनाता है, स्त्री बिगाड़ देती है । तब भी कहावत में कम तथ्य या कम रस नहीं रहता । बात वास्तव में यह है कि पुरुष कम बनाता या बिगाड़ता है । इसी तरह पुरुष कुछ नहीं बनाता-बिगाड़ता, जो कुछ बनाती और बिगाड़ती हैं स्त्री ही। स्त्री ही व्यक्ति को बनाती है, घर को, कुटुम्ब को बनाती है, जाति और देश को भी, मैं कहता हूँ, स्त्री ही बनाती है। फिर उन्हें बिगाड़ती भी वही है । आनन्द भी वही और कलह भी, हराव भी और उजाड़ भी, दूध भी और खन भी और फिर आपकी मरम्मत और श्रेष्ठता भी-सब कुछ स्त्री ही बनाती है। धर्म स्त्री पर टिका है, सभ्यता स्त्री पर निर्भर है और फैशन की जड़ भी वही है । बात को बढ़ानो, एक शब्द में कहें-दुनिया स्त्री पर टिकी है । जो आँखों में देखते हैं, चुपचाप इस तथ्य को स्वीकार कर, दबके बैठे रहते हैं, ज्यादे चू नहीं करते । जिसके आँखें नहीं, वह माने या न मानें, हमारी बला से।"- - परख', दूसरा संस्करण, १९४१, पृ० ५८-५६ ।।
परन्तु स्त्री की यह प्रमुखता अपने में यों ही नहीं है। वह प्रेम और विवाह के प्रश्नों को लेकर है, क्योकि यही जीवन के अधिकांश क्षेत्र को घेरते हैं, परन्तु प्रेम और विवाह में से यदि किसी एक को चुनना पड़ जाये तो आदमी क्या करे ? वह प्रेम को चुने या विवाह को ? द्वन्द्व की स्थिति यहीं से शुरू होती है । एक अवश्य टूटेगा-प्रेम या विवाह, क्योंकि दोनों को लेकर चलने वाले सौभाग्यशाली कम ही