SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व इन उपन्यासों में उभरे हैं । इस जीवन व्यापी कृतित्व की भूमिका में ही हमें उनकी स्फुट रचनाओं को देखना होगा और उनके पूर्वापर सम्बन्ध का निर्वाह करते हुए भी उनके सामाजिक कथाकार पर दृष्टि केन्द्रित रखनी होगी । क्या जैनेन्द्र की इन रचनाओं के पीछे कोई क्रमविकासात्मक सुचिन्तन है ? वह जीवन के पीछे दौड़े हैं या विचार के ? उनकी रचनाओं में वस्तुस्थिति का चित्रण है या संभावनाओं का ? वह मनोवैज्ञानिक कथाकार हैं या सामाजिक कथाकार या वैचारिक कथाकार ? यदि हम इन रचनाओं में कोई प्रांतरिक व्यवस्था और सुनिर्दिष्ट चेतना पा सकें तो क्या हम उनके सत्य की ग्रांच को झेलने के लिये तैयार हैं ? साहित्य का धर्म न जीवन के धर्म से बच सकता है, न उसे खण्डित कर सकता है । हम जैनेन्द्र जैसे मूलबद्ध चितक से यह आशा नहीं कर सकते कि वह अवचेतन को निरंकुश छोड़ कर अराजकता पैदा करेगा या चमत्कार - सिद्धि पर टिककर विस्फोटक बन जायेगा । अपने कथा - साहित्य जैनेन्द्र ने बुद्धि को निरंतर हराया है, परन्तु वह कहीं भी बौद्धिक नहीं हुए हैं । बुद्धि पर टिक कर ही वह उसकी असमर्थता को चरितार्थ करते हैं । फलतः यह प्राव I क है कि उनके पुनर्मूल्यांकन के लिए हम नये प्रश्नों को उभारें और नये मानदण्ड सामने लायें । दर्शन, अध्यात्म, धर्म, समाज- ये जीवन के बाहर नहीं हैं और जैनेन्द्र इनमें पूरे-पूरे रमे हैं । उनके निबंध, परिसंवाद, वार्ताएं आदि प्रमाण हैं । फिर हम उनसे किस स्वतंत्र साहित्य-धर्म का ग्राग्रह करते हैं जो मनोविज्ञान या रस की सीमा मात्र में सिमटाये । विचारक कथाकार कथा को विचार में से ही उभारेगा, परन्तु कथा अपने साथ वह सब कुछ लायेगी जो जीवन का निर्माण करता है । उसमें मनोवैज्ञानिकता भी भरपूर रहेगी, परन्तु वह किताबी होकर भी किताबी नहीं होगी, क्योंकि कोई भी श्रेष्ठ कलाकार शास्त्र की बैसाखी पकड़कर चलना स्वीकार नहीं करेगा | जैनेन्द्र जीवन धर्मी कलाकार हैं और उनकी कला सामाजिक और सर्वग्राही रही है । अत: उनको हम न रोमांस का बंधन दे सकते हैं, न ग्रादर्श का, न यथार्थ का, क्योंकि जीवन इन सबको सिमेट कर भी इनसे उपर है । होने में ही उसकी सार्थकता नहीं है, कुछ आगे बढ़ कर बनने में भी उसकी सार्थकता है । इसीलिये वास्तव अवास्तव का प्रश्न भी उनके साहित्य में नहीं उठता । समाधान यह है कि हम जैनेन्द्र के उपन्यासों को सहें, उनकी आंच में तपे, उनकी व्यथा को पढ़ें और न मनोविज्ञान में उलझें, न दर्शन में, न 'कहे' में; क्योंकि 'कहे' के पीछे 'अकहा' भी कुछ कम ध्वनित नहीं है । प्रेमचंद के मापदण्ड पर हम जैनेन्द्र को नहीं प्रांक सकते, अधिक-से-अधिक वह मापदण्ड 'परख' पर लागू हो सकता है । स्वयं प्रेमचंद उसे 'सुनीता' पर भी लागू नहीं कर सके थे और इस रचना के आदर्शवाद को उन्होंने प्रतिवादी और अव्यावहारिक माना था, परन्तु यह श्रावश्यक
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy