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रामरतन भटनागर, एम० ए०, डी० फिल
उपन्यासकार जैनेन्द्र : पुनर्मूल्यांकन
(१)
जैनेन्द्र के प्रालोचकों ने उनकी रचनाओं में कथा ही देखी है, उनकी व्यथा से वे अपने को बचा गये हैं । मैं मानता हूँ कि उपन्यास में हम कथा चाहते हैं, परन्तु कथा से बड़ी चीज़ यदि कोई उपन्यासकार देता है तो हम उसे क्यों अस्वीकार कर दें ? यह बड़ी चीज़ यदि हमारी सामाजिक और व्यक्तिगत मर्यादानों को चुनौती देती है तो क्या बुरा है ? क्या उपन्यास दो घड़ी जी बहलाने की चीज़ रह गया है ? क्या उसकी चरितार्थता मानव-चरित्र की सम्भावनाओं को उन्मुक्त करने में नहीं है ? उपन्यास के पात्र क्या अपने में स्वतंत्र, सर्वनिरपेक्ष इकाई हैं कि उपन्यासकार और पाठक भी उनकी दुनियाँ में डूबकर वहीं के होकर रह जायें और विचारों की टकराहट से अपने को बचा लें ? ये कुछ प्रश्न जैनेन्द्र की रचनाओं के अध्येता के सामने खुल कर श्राते हैं । प्रेमचंद को जो सतही, कम-मनोवैज्ञानिक और बोझल कहते चले आये हैं, वे जैनेन्द्र की तलस्पर्शी मनोमयी और तन्वि कलाकृतियों से क्यों कतराना चाहते हैं ? यह आश्चर्य की बात है कि हम श्रेष्ठ रचनाओं और कलाकारों का फ़ैसला कला के हाथों सौंपकर निश्चित होना चाहते हैं और अपनी सुविधा और सुरक्षा में ही अपने समीक्षा-धर्म का निर्वाह समझते हैं । यह आवश्यक है कि हम जैनेन्द्र की रचनाओं का मूल्यांकन करें और उनमें कुछ गहरा उतरें । प्रश्न न जैन-धर्म की ध्वजा का है, न जैनेन्द्र-धर्म की ध्वजा का प्रश्न हमारी सामर्थ्य का है, क्योंकि प्रत्येक सशक्त रचना युग के प्रति ही चुनौती नहीं है, वह सहृदय और समीक्षक के लिए भी चुनौती । कृति से बच कर या कृतिकार पर धूल डाल कर हम उसके तेज को कुठित नहीं कर सकेगे । ग्रस्तु |
एक के बाद, एक जैनेन्द्र ने आठ उपन्यास हमें दिये हैं । " तपोभूमि" को हम छोड़ देते हैं और "श्रनाम स्वामी" अभी अपूर्ण ही सामने आया है । ये उपन्यास जैनेन्द्र के कथा-जगत के महदांश भी नहीं हैं, क्योंकि उनकी कहानियों में उन समस्याओं को तथा और भी अनेक समस्याओं को उठाया गया है जो सुविधा और सामर्थ्य रहने पर उपन्यास भी बन सकती थीं। यही नहीं, जैनेन्द्र का विचारक निबन्धों, वार्ताओं और टिप्पणियों में भी उन कुछ मूल प्रश्नों पर विचार करता रहा है जो ( १५३ )