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________________ ( १३ ) ने उन्हें और भी अधिक प्रिय बना दिया है । जैनेन्द्र का उन्मुक्त चिन्तन कभी-कभी सामान्य पाठक को अटपटा-सा लगता है, लेकिन जैनेन्द्र जी के 'सापेक्षतावादी चिन्तन' की अपनी एक परम्परा है और वे अपने मौलिक, दार्शनिक विचारधारा के कारण अन्य लेखकों से कहीं ऊपर उठ गए हैं, भले ही कहीं-कहीं पाठक के लिए वे बेहद दुःसह तक हो गए हैं । अन्य लोगों की वृष्टि में जैनेन्द्र जैनेन्द्र जी के साहित्य पर विभिन्न पाठकों और लेखकों ने विभिन्न मत व्यक्त किए हैं । प्राचार्य प्रवर डाक्टर नगेन्द्र ने लिखा है कि "यहीं से वह तीखा - पन और धार मिलती है, जो उनकी सबसे बड़ी शक्ति है और जिसके कारण अपने क्षेत्र में आज भी उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है ।" नगेन्द्र जी द्वारा संस्थापित षट्कोणी तत्त्वों – तेजस्विता, प्रखरता तथा तीव्रता, गहनता, दृढ़ता, सूक्ष्मता तथा व्यापकता की कसौटी पर जैनेन्द्र जी के साहित्य को कसते हुए एक आलोचक महोदय ने लिखा है कि " ऊपर परिगणित छहों दृष्टियों से यदि हम अपने श्रालोच्य उपन्यासकार का विश्लेषण करें, तो जैनेन्द्र में तेजस्विता, प्रखरता, गहनता और सूक्ष्मता इन चार गुणों की स्थिति प्रसंदिग्ध है ....... • जैनेन्द्र की कला में दृढ़ता की स्थिति इसलिए संदिग्ध है कि जैनेन्द्र की निरीहता और नियतिवाद के संघर्ष में यह बात कुछ अधिक जँचती नहीं है । यह बात नहीं कि जैनेन्द्र के विश्वास ढीले श्रौर कमजोर हैं, पर उनमें कट्टरता की दृढ़ता और शक्ति नहीं है, क्योंकि प्रेम और अहिंसा की बातों से कट्टरता मेल नहीं खाती और व्यापकता का तो ' • जैनेन्द्र की कला में सर्वथा प्रभाव है । पर यह अपूर्णता साधारण नहीं है । व्यापकता श्रीर दृढ़ता के अभाव में जैनेन्द्र की कला का यदि मूल्यांकन किया जाये, तो जैनेन्द्र, मैं समझता हूँ, यदि विश्व के प्रथम श्रेणी के साहित्यकारों में अभी नहीं श्रा पाये हैं तो उस श्रेणी के द्वार पर तो अवश्य ही पहुँच गए हैं।"* जैनेन्द्र जी के विषय में एक स्थान पर जो विचार व्यक्त किए गए हैं, वे मुझे बड़े ही सुन्दर लगे हैं । प्रस्तु इन्हें पाठकों को बिना सौंपे नहीं रह सकता । "Philosopher Jainendra has-The ablity to state the most abstract ideas in the simplest terms. Even when he borrows an idea or a sumilie-and he is a verocious reader - he dresses it in an original manner. ' " * श्री रघुनाथशरण झालानी - जैनेन्द्र और उनके उपन्यास --- --- पृष्ठ १८६ |
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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