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________________ ( १२ ) १९५२ में अकस्मात् 'विवर्त' के दो परिच्छेद किसी पत्र में छप गये । पाठकों ने इन परिच्छेदों को इतना पसंद किया कि जिज्ञासुओं के प्राग्रह पर अनेन्द्र को पुनः साहित्य में पाना ही पड़ा। उपन्यासकार जैनेन्द्र के विषय में मैं बहिन रजनी के मत से पूर्ण रूपए। सहमत हैं। उनका कहना बिल्कुल ही सत्य है कि "जैनेन्द्र सिद्ध कथाकार हैं। ये जो कहना चाहते हैं, उसे प्रभावशाली ढंग से कहने की क्षमता रखते हैं।" निबन्धकार, धक्ता, चिन्तक, दार्शनिक और विचारक जैनेन्द्र प्राचार्य किशोरीलाल मशरूवाला ने एक बार लिखा था कि-"जैनेन्द्र के विचार पढ़कर मैंने ऐसा अनुभव किया जैसा टालस्टाय को पढ़ते समय हा था. बल्कि उससे भी विशेष ।” यह मत केवल एक ही व्यक्ति का नहीं है, अपितु हिन्दीसाहित्य के कई पाठकों की यही विचारणा है। जैनेन्द्र के निबन्धों को, उनके विचारों को प्रोर उनके अभिमतों को समझने के लिए हमें कठिन परिश्रम करना पड़ेगा और उनके साहित्य का गहन अध्ययन करना होगा । इसके लिये जिज्ञास पाठकों को चाहिये कि वे 'जनेन्द्र के विचार', 'प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', 'मंथन', 'सोच-विचार', 'काम, प्रेम और परिवार', 'ये और वे' तथा 'इतस्ततः' का सूक्ष्म विवेचन और विश्लेपण करें। मैं समझता हूँ कि जैनेन्द्र जी के जीवन में दर्शन पूरी तरह से रम गया है। विचारों के प्रकाशन का उनका अपना ही एक ढंग है। खोया-खोया सा, पर वह उनसे छूटने वाला नहीं है । जैनेन्द्र जी का स्वय न लिखकर कहानियाँ, निबंध और लेख सीधे टाइपिस्ट को 'डिक्टेट' करते हुये लिखाना भी उनकी अपनी शैली है। ___ 'साहित्य और समाज', 'कला क्या है', 'साहित्य-सृजन', 'साहित्य और नीति' अनेक गम्भीर और विचार पूर्ण विषयों पर जैनेन्द्र के निबन्ध पाठकों के समक्ष पाये हैं। जैनेन्द्र के निबन्धों की अपनी ही एक शैली है, और उन्होंने अपनी लीक खुद बनाई है । भाषा के घिसे-पिटे रूप को छोड़कर जनेन्द्र ने अपने निबन्धों को नयी और रोचक शैली के द्वारा अधिक लोकप्रिय बना दिया है । उर्द शब्दों का समावेश भी उनकी भाषा को अधिक जन-प्रिय बना सका है । अंग्रेजी के उन शब्दों का प्रयोग, जिन्हें हम रोज-बरोज प्रयोग में लाते हैं, उनकी कृतियों को पाठकों के अधिक निकट लाकर बैठा देता है । लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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