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________________ भाई साहब और मैं १४६ जैनेन्द्र के नारी पात्र-चित्रण के विरोध में बार-बार जागकर डट खड़ा होता था, उसी के प्रकाशन के लिए मैंने ऐसा किया था। लगभग दस वर्ष पूर्व की बात है । एक दिन सांस्कृतिक समारोह में एक दुबलेपतले, खुद में ही खोये हुए व्यक्ति को देखने का अवसर मिला था । कुछ लोग दूर से ही बता रहे थे. ये जैनेन्द्रजी हैं। उत्सुक तो मैं इतने दिन से था ही। मैं भी वहीं मार्ग में खड़ा खोया-सा देखता रहा । मैंने उनकी आँखों की गहराई में उतरने की कोशिश की, उनकी वेशभूषा को देखा और उनके खुद में ही खोये हुए व्यक्तित्व में से कुछ ढूढ़ निकालने की चेष्टा की। कुछ ही देर बाद मुझे ऐसा लगा कि इस कृतिकार के प्रति अजनबी बना रहना मेरी मूर्खता ही नहीं तो और क्या है । पर मैं न जाने क्यों मन में संजोये उस परायेपन को वापस लेकर ही लौट आया। + आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र से मेरी वार्ता प्रसारित हो चुकी थी। मैं पाँच नम्बर स्टूडियो से निकल ही रहा था कि मुझे एक आवाज सुनाई दी. मैंने कुछ अंश सुनने के बाद पूछा 'किसकी टाक है।'' मेरे एक मित्र महोदय ने कहा, "आपने देखा नहीं । अभी-अभी तो जैनेन्द्र जी गए हैं।" मैं लपक कर बाहर आया और पूछतापाछता उस स्थान पर पहुँच ही गया, जहाँ से जैनेन्द्रजी निकल कर जाने को थे। ___ अब तक मैं जैनेन्द्रजी के सुनीता, त्यागपत्र, विवर्त, अतीत और सुखदा उपन्यासों का अध्ययन कर चका था । उनके चरित्रों की मनोग्रंथियों से टकराते-टकराते मैं यह समझने लगा था कि जैनेन्द्र के साहित्य को समझना मुश्किल है। मैं ऐसे ही विचारों में उलझा हुआ था कि इतने में मैंने देखा एक व्यक्ति सामने से आ रहा है। वही तो जैनेन्द्रजी थे । मैं ध्यान से देखता रहा । उनके सीधेपन और उनकी सादगी का मेरे मन पर यह प्रभाव पड़ा कि जैनेन्द्रजी का सत्य एक वैज्ञानिक के सत्य से कहीं ऊँचा है और उनका जीवन अपने परिवेश में कहीं अधिक व्यापक है। ____ मैं मिला, नमस्कार किया और दर्शन-मात्र का सुख प्राप्त करके ही चला आया । लौटकर घर आने पर सोचता रहा कि जैनेन्द्र की जो तरह-तरह की समीक्षाएँ की जाती हैं और जो उपेक्षा की जाती है, उसमें कोई सत्य होगा यह विचारणीय विषय है। - + और पाजाज बहुत कुछ सोचता हूँ. 'पिछले दो-तीन साल जैनेन्द्रजी के सम्बन्धों को बड़े कुतूहल के साथ देखता हूँ । सोचता हूँ जैनेन्द्रजी के (भाई साहब के) हाँ, मैं उन्हें भाई साहब ही तो कहता हूँ। इस ढेर से प्यार को मैं समेट कर, संजोकर
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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