SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सत्यप्रकाश 'मिलिंद' भाई साहब और मैं बात सन् १९४०-४१ की होगी "एक दिन अनायास यूनिवर्सिटी से लौटते समय कुछ मित्रों से हिन्दी-उपन्यासों की गतिविधियों पर चर्चा चल गई। बिना किसी संकोच के मैंने मित्र-मंडली में सुनीता, कल्याणी और परख पर खासे छींटे कस दिये। आज जब मैं मन की गहराइयों में उतर कर झाँकता हूँ तो ऐसा लगता है कि मेरा उस प्रकार पालोचना करना सम्भवतः विद्यार्थी जीवन की 'ईगो' का समर्थक रहा होगा। इन तीनों उपन्यासों के सर्जक जैनेन्द्रजी का नाम मैं १९३६-३७ में ही सुन चुका था । नवीं और दसवीं कक्षा में यद्यपि मेरा वैकल्पिक विषय विज्ञान था, तो भी साहित्य की कल्पना मुझसे दूर नहीं भाग पाई थी। 'सुनीता' नामक उपन्यास के माध्यम से जैनेन्द्रजी के छोटे-बड़े, जाने-अनजाने कई धुधले और बिखरे चित्र मैं बना पाया था । किसी दिन मैं सोचता जैनेन्द्र कोई लम्बे बालों वाले, क्लीनशेव, मोटे ता.) व्यक्ति होंगे, तो दूसरे ही क्षरण मेरे मन में यह पाता कि जैनेन्द्र के साहित्य में जितनी दुरूहता है, उतना ही दुरूह उनका व्यक्तित्व भी होगा । जैनेन्द्रजी के दो-एक उपन्यासों को पढ़ने के बाद मेरी ऐसी कुछ धारणा बन गई थी कि जैनेन्द्रजी स्वतन्त्र प्रबुद्ध विचारक हैं और उनमें परम्परागत रूढ़िवादी सनातनता हूँढे नहीं मिल सकती । मैं जैनेन्द्र के विषय में तरह-तरह की धारणाएं बना बैठा था । मन में यह आकांक्षा मैंने अवश्य संजोकर रख ली थी कि मैं अवसर पाते ही उनके उपन्यासों का क्रमिक और विस्तृत अध्ययन करूंगा। अपनी उस समय की उस धारणा पर आज जब मैं विचार करता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि जैनेन्द्र एक कुशल चितेरे की भांति जिस असंकोच और निर्द्वन्द्वता के साथ अपने चरित्रों के गोपनीय व्यक्तित्वों की उलझनों और उनके दुराव-छिपावों को खोल कर रख देने में दक्ष हैं, उसी का प्रयोग वे चरित्रों की मनोग्रन्थियों के विश्लेषण में कर बैठते हैं। + + अाज करीब २२ साल पुरानी बात है । मुझे याद पड़ता है मैंने जनेन्द्रजी के उपन्यासों पर किसी पत्र में समीक्षा कर दी थी, पर विस्मृति के गर्त से खोज कर मैं उसे पूरी तरह से नहीं प्रस्तुत कर पा रहा हूँ । मुझे याद है मेरे मन में जो विद्रोह ( १४८ )
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy