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जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणां
१४७ लक्ष्य हो सकता है। जैनेन्द्र जी का यह प्रेमवादी अध्यात्म सर्वग्रासी है और शून्यवादी अ यात्म की तरह चेतना को रुद्ध , निष्क्रिय और जड़ित नहीं करता, वरन् उसे एक स्वस्थ स्फूर्ति प्रदान करता है और मानसिक ग्रंथियों को खोलता है । वह मानव के सामने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सक्रियता की योजना प्रस्तुत करता है । मानवता के साथ वह एक उच्च नैतिक लक्ष्य स्थापित करता है और उसकी प्राण वत्ता को असीम अबाध बनाकर भौतिकवाद और विज्ञानवाद पर प्रारूढ होने की प्रेरणा देता है । जैनेन्द्र की विचारणा गाँधीवाद का वैज्ञानिक अध्ययन करती है और उसकी मूल गहन प्रेरणाप्रो को बौद्धिक और व्यावहारिक तल पर ले आती है। भौतिकवाद और विज्ञान को 'परे-परे' करना आस्तिकता से इन्कार करना है क्योंकि ये दोनों भी भगवान् की ही देन हैं । जैनेन्द्रजी का मत है कि इन दोनों से भय खाना व्यक्ति चेतना के नीचे ब्रह्म की सत्ता को अमान्य ठहराना है। विज्ञान और अध्यात्म जब परस्पर सापेक्ष बनकर घुले-मिलेंगे, तो उसका सुफल यही हो सकता है कि राष्ट्रों के बीच परस्परता और प्रीति बढ़े, श्रद्धा की सम्भावना कम हो और एक विश्व-संस्कृति का विकास हो ।