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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
अहं चाहे व्यक्ति का हो या संगठन का, समस्यायें ही पैदा करता है । विज्ञान की शक्ति ने राष्ट्रीय अहं-वादिता को जो दुर्द्धर्ष बना दिया है, यही हमारी प्राज की सबसे बड़ी समस्या है। अर्थ का परमार्थीकरण
आज विशालकाय उद्योगों और अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य पर टिकी हमारी 3 र्थव्यवस्था इतनी जटिल हो गई है कि वह साधन न रहकर साध्य का स्थान ले चुकी है। अर्थ-मानसिकता इतिहास के प्रवाह में हमें मिली है और विश्व की राजनीतिक कूटनीतिक अवस्था ऐसी है कि सुदृढ़, केन्द्रित समाजवाद सबको अल्प पाप ( Lesser Evil) के समान अनिवार्य लग उठा है। अस्तित्व-रक्षा का प्रश्न अाज सबसे विकट है और विज्ञान ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अर्थ और राजनीति के क्षेत्रों में केन्द्रित सामूहिक प्रयास के बिना गुजारा नहीं रहा है । इतिहास के वेग को लौटाया नहीं जा सकता, पर एक बात की जा सकती है । वह यह कि नैतिकता को अर्थ-मानसिकता के प्रतिपक्ष में से हटाकर उसे अर्थवाद का शक्ति-स्रोत बना दिया जाय । हमारी
आथिक योजनायें मात्र 'स्व-अर्थ' से प्रेरित न होकर ‘पर और परमार्थ' से प्रेरणा प्राप्त करें। राष्ट्र मात्र के राष्ट्रीय-हित के आधार पर मोल-भाव, क्रय-विक्रय और दाँव. पेंच न करके समस्त विश्व का हित सोचें । यह तभी होगा, जब व्यक्ति 'परम अर्थ' की शिक्षा लेगे और उसका राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय कार्यों में अन्वय करेगे। अर्थ-नीति और राजनीति को परम्परता की प्रेम-नीति पर चलाये बिना स्पर्धा, द्वेष, घृणा के वातावरण को बदला नहीं जा सकता । जैनेन्द्रजी का विश्वास है कि अर्थ का परमार्थीकरण राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी असम्भव नहीं है । जो भी देश ऐसी पहल करने के लिए आगे बढ़ेगा, यदि उसमें सिर्फ एक जोश ही न होकर समग्र और अहं की सही अवधारणा (Right Assessment) की क्षमता और कुछ कर गुजरने का साहस होगा तो उसे घाटे में नहीं रहना पड़ेगा । विज्ञान इस दिशा में मानव की पूरी सहायता कर सकता है । उससे सहायता लेना या न ले पाना यह मानव की अपनी नैतिकता पर निर्भर करता है । वैज्ञानिक अध्यात्म
जैनेन्द्रजी ने 'वैज्ञानिक अध्यात्म' नाम का प्रयोग किया है । मैं समझता हूं जैनेन्द्र दर्शन पर वह नाम ठीक बैठता है । अात्मिकता अर्थात् पारस्परिकता को लक्ष्य मानकर चलाना और वैज्ञानिक सत्यों का अात्मिकता के विकास-क्रम में पूरा उपयोग करना ही वैज्ञानिक अध्यात्म कहला सकता है। ब्रह्म की समग्रता, अहं की अंशता, दोनों की सापेक्षता-ये तीन अस्तित्व के सबसे अधिक वैज्ञानिक सत्य हैं। इन तीनों का परस्परता और अहिंसा के लिए उपयोग हो, यही व्यावहारिक अध्यात्म और उसका