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________________ जनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा vvv v v v v v +++ + + v v v v प्रेम ही कामकता, आर्थिक स्वार्थ तथा हिसक महत्त्वाकांक्षा पर विजय पा सकता है । नीति-नियम, आदेश, मर्यादा वैसा करने में असमर्थ सिद्ध होते है । असल में अस्तित्व-रक्षा भी प्रम और परस्परता के माध्यम से जैसी हो सकती है. शहर से नहीं । इसलिए परस्परता ही नीति है, नैतिकता है और श्लीलता है । परस्परता के विपरीत जो है, सब अनंतिकता और हिंसा है। पूंजीवाद-समाजवाद पूजी का वाद बनना कब प्रारम्भ हुअा ? एक समय था, जब एक ओर श्रम और दूसरी ओर आभिजात्य ही समाज-मूल्य थे। उस समय जो व्यापार-वाणिज्य द्वारा लाखों-करोड़ों बटोरते थे, उनका समाज-मूल्य नगण्य था। पूजी का वाद बनना उस दिन प्रारम्भ हुआ, जिस दिन पूजी को समाज-मूल्य मिला और पूजी पैदा करने की स्पर्द्धा जन-साधारण में पैदा हुई । पूंजीपतियों ने विकासशील यन्त्र-विज्ञान का सहारा लिया । उद्योगों का सूत्रपात हुआ । राज्य सरकारों ने उद्योगों पर कृपा का रुख त्याग कर उनमें सजीव रुचि लेनी प्रारम्भ की और व्यक्तिगत पूजी के रक्षण और विकास के लिए कानून बनाये । उद्योग, उत्पादन और वाणिज्य मानव-मानसिकता पर छा गये और धर्म, मर्यादा, नैतिकता के भाव ढंक गये । समय आया कि पूजीपति सरकार में पहुँचा और सामन्त के स्थान पर स्वयं विधायक बना । सत्ता पूंजीपति के हाथ प्रा गयी। समाज की सुविधायें पूजी के आधार पर मिलने और छिनने लगीं। पूजी ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, पारस्परिकता का नियमन करने लगी और हर समस्या के आर्थिक पहलू को हम सर्वाधिक महत्व देने लगे। इस अर्थ-मानसिकता को ही जैनेन्द्र जी पूजीवाद का नाम देते हैं । उनका मत है कि पूजीवाद से समाजवाद तक पहुँच जाना इस अर्थ-मानसिकता से छुट्टी पा जाना नहीं है । खतरनाक चीज यह अर्थ-मानसिकता है, जो उपयुक्त दोनों ही वादों का समान आधार है । पूजी से प्रेरित व्यक्ति हो या राष्ट्र, दोनों की विचारणा एक ही पटरी की होगी और दोनों ही नैतिकता और पारस्परिकता को लाँधकर चलेंगे । जैनेन्द्र समाजवाद को राजकीय पूंजीवाद (State Capitalism) कहते हैं, जिसके पास अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा और ईर्याद्वेष का वातावरण पैदा करने की क्षमता आ जाती है । जैनेन्द्र बनिये के हाथ में शस्त्र और कानून का देना शुभ नहीं मानते । राज्य का वणिक और पूंजीपति बन जाना उनकी दृष्टि में कल्याण का वाहक नहीं बन सकता । अाज पूजीवाद और समाजवाद में जो अन्तर माना जाता है—अर्थात् व्यक्तिगत आर्थिक प्रयास की स्वच्छन्दता और उसका सरकारी प्रयास में विलुप्त हो जाना—उसे जैनेन्द्र बहुत महत्त्व नहीं दे पाते । वे सत्ता के केन्द्रीकरण से भी सहमत नहीं हैं । वे केन्द्रित और अनुशासनात्मक शासन को ही नैतिक मान पाते हैं । उनका सिद्धान्त है कि परस्परता से विमुख स्व-निष्ठ
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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