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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व की कसौटी है । यही धर्म एवं नैतिकता है । यह किसी वायव्य आदर्श से प्रेरित नहीं, बल्कि ब्रह्म और अहं के अंशी-अंशभाव से बाध्य है। फिर ब्रह्म और अहं का जो रिश्ता है, उसमें अहिंसा ही सच्ची नीति ठहरती है । इससे इनकार नहीं किया जा सकता। जैनेन्द्र-दर्शन श्रद्धा और जिज्ञासा सूक्ष्म सत्य और स्थूल व्यवहार, पुरुष और प्रकृति सबको अपने में समेट और साथ लेकर चलता है । वह नितान्त नहीं, सापेक्ष है। वह किसी विचार या वस्तु का निषेध नहीं करता। सब में निहित सत्य को खोजता और उपलब्ध करता है। गांधीवाद और जैनेन्द्र
गाँधीजी और गांधीवाद ने जैनेन्द्र की विचारणा के निर्माण में कितना योग दिया है, यह प्रश्न भी विचारणीय है। जैनेन्द्र गांधी-युग की उत्पत्ति है । गांधी ही उनकी विचारणा के मूर्त प्रादर्श हैं । उन्हीं का वे हर कदम पर हवाला देते हैं। साथ ही गांधीवाद के व्याख्यातानों में उनका बहुत ऊँचा स्थान है। इससे प्रकट दीखता है कि गांधीवाद ने उनकी विचारणा को मौलिक रूप में प्रभावित किया है । पर जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, जैनेन्द्र को गांधी और गांधीवाद मूल में नहीं, मार्ग में मिले । उनकी विचारणा का स्रोत ब्रह्म की समग्रता के उस साक्षात्कार में है, जिसे जनेन्द्रजी ने 'आस्तिकता का पाना' कहा है । शेष सब उसमें से निःसृत होता चला गया । सामने ही गांधी थे, जिनका व्यक्तित्व और जिनके कार्य अपनी विचारणा के पुष्ट प्रमाण रूप जैनेन्द्र को दीखे । गाँधीजी ने उन्हें सुलझाव दिया और एक कसौटी प्रदान की। इस प्रकार कहानियों, उपन्यासों और लेखों के रूप में जैनेन्द्र की विचारणा व्यक्त हो चली और धीरे-धीरे एक सुनिश्चित रूप ग्रहण कर चली। जनेन्द्र की अभिव्यक्ति में जो सहजता और अनायासता है, वह अन्त:साक्षात्कार का ही फल मालूम पड़ती है, बुद्धि द्वारा बाहरी विचारों के ले लेने से वह नहीं आ सकती थी। ब्रह्म, अहं और विशेषकर परस्परता की उनकी व्याख्या एकदम मौलिक है और उससे स्वयं गांधीवाद को एक वैज्ञानिक पुष्टि-क्रम प्राप्त हो सकता है। जैनेन्द्रजी गांधीजी का अन्तःस्थ मूल प्रेरणाओं को शायद सबसे अधिक गहराई से समझ और पकड़ सके हैं, इससे अधिक प्रस्तुत प्रसंग में और कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
आवश्यक है कि कुछ उन महत्त्वपूर्ण विषयों पर, जिनका स्पष्ट अथवा यथोचित उल्लेख ऊपर के विश्लेषण में नहीं आ पाया, जैनेन्द्रजी के विचार अत्यन्त संक्षेप में यहाँ दे दिये जायँ । वे इस प्रकार हैं : प्रात्मा-गुनर्जन्म-कर्मसिद्धान्त
आत्मा शब्द का प्रयोग मुख्यतः उस सूक्ष्मतम नित्य तत्त्व के अर्थ में किया गया