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________________ जैनेन्द्र की दार्शनिक विचरणा उनको प्रेरित कर रहा था। इस वृत्ति से ममतावश सारा पंजाब उनके पीछे पागल हो उठा । सत्यनिष्ठ अहिंसक भावुक नहीं हो सकता। मात्र जन्म-मृत्यु, लौकिक हिंसाअहिंसा उसे उद्वेलित नहीं कर सकते । जैनेन्द्र-दर्शन की विशेषताएं ऊपर जैनेन्द्र-दर्शन के चारों मूल तत्त्वों की संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास मैंने किया है । जैनेन्द्र की विचारणा की एक झाँकी ही इस प्रकार मैं दे पाया हैं। इस विचारणा की जिन विशेषताओं ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, उनका उल्लेख किये बिना इस प्रसंग को समाप्त नहीं किया जा सकेगा । यह विचारणा अत्यन्त वैज्ञानिक, तर्कसंगत एवं क्रमबद्ध है और किसी पूर्वाग्रह को अपनी सिद्धि के लिए अनिवार्य नहीं ठहराती । जनेन्द्र के ब्रह्म को किसी अन्धविश्वास का उपादान बनने की आवश्यकता नहीं है । जो कुछ है, वह हमारे चारों ओर है । यह जड़-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल सब ब्रह्म है और हम उसके अंग हैं । अपनी बुद्धि और कल्पना के अनुसार व्यक्ति इस ब्रह्म का यथाशक्ति प्रात्मग्रहण और साक्षात्कार कर सकता है । जैनेन्द्र का ब्रह्म मात्र सूक्ष्मतम तत्त्व अथवा केवल अदृश्य परम शक्ति नहीं है, जिसे कल्पना में लाना कवियों या दार्शनिकों के लिये ही सम्भव हो सकता हो, साधारण जनता के लिए नहीं । वह शून्य और पिण्ड का समन्वय है और कोई अस्तित्व ऐसा नहीं, जो उसमें समाविष्ट न हो। पुरुष प्रकृति का हूँत वहाँ नहीं है । हो सकता है, ब्रह्म की यह समग्र-अद्वैत व्याख्या नयी न हो, पर उसकी समग्रता पर इतना नितान्त जोर बिरले ही दार्शनिकों ने दिया है । अद्वतता का विवे वन निःसन्देह काफी हया है । जैनेन्द्र का अहं तत्त्व भी विचारक मानस को एकदम आकर्षित करता है । अहं पृथक व्यक्ति होते हुए भी समग्र का अंश है; इस तथ्य को प्रकाशित करता और उभारता है । अहं में व्यक्ति का पूर्ण अस्तित्व सन्निविष्ट है । मात्र सूक्ष्म चेतना नहीं । यह तत्त्व व्यक्ति की नितान्तता पर सापेक्षता (ब्रह्म से भी अन्य अहं-चेतनाओं से भी) का अंकुश लगाता है । सूक्ष्म, स्थिर तत्त्व प्रात्मा में अंकुश गभित नहीं है, क्योंकि वह शरीर का निषेध करके चलती है और मूल में ही नितान्ततावादी है । इस सापेक्षता में से ही तीसरा तत्त्व निकल पाता है परस्परता, जो ब्रह्म-ग्रहं के वैज्ञानिक सत्य को व्यवहार और कर्म की ओर मोड़ देता है । यदि सापेक्षता और परस्परता सत्य अनिवार्य हैं तो वे पर के स्वागत अर्थात् अहिंसा के द्वारा ही सिद्ध और फलित हो सकते हैं । जैनेन्द्रजी की अहिंसा की व्याख्या भी परस्परता पर आश्रित होने के कारण अत्यन्त मौलिक बन पड़ी है । असल में सापेक्षता और परस्परता जैसा वैज्ञानिक और क्रमबद्ध बल जैनेन्द्रजी की विचारणा देती है, वैसा अन्य दर्शन नहीं देते। यह सापेक्षता और परस्परता उनकी दृष्टि से व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व सबकी नीतियों
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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